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मस्तक पर कर्पूर, कंठ में पुष्पमाला और बेडी से दोनों पैरों से जकडी दो ऊंटनियों को देखा। ये दोनों कौन है? यहाँ पर क्यों और कैसे चढ़ी है? इस प्रकार विचार करता हुआ इधर-उधर देखने लगा। तब झरुखे में सफेद और काले अंजन से युक्त दो कूपिकाएँ देखी! पास में ही सली को देखकर सुमित्र ने जान लिया कि यह योग अंजन है। दोनों ऊंटनियों के आँखों पर सफेद बाल देखकर सुमित्र ने सोचा - किसी ने अंजन का प्रयोगकर, इन दोनों स्त्रियों को ऊंटनी बना दी है। कदाच काले अंजन के प्रयोग से, ये दोनों मूल स्वरूप में आजाएँ, इस्तेमाल कर देखता हूँ, ऐसा विचारकर उनकी आँखों पर काला अंजन लगाया। तत्क्षण ही वे दोनों मानवी बनी। सुमित्र ने उनसे कुशल-क्षेम पूछा और कहा - चित्त में आश्चर्य उत्पन्न करनेवाला, तुम दोनों का क्या वृत्तांत है। तब उन्होंने कहा - भाग्यशाली! हमारी कथा सुनो -
गंगानदी की उत्तरदिशा में भद्रका नामक नगर है। वहाँ पर गंगादित्य श्रेष्ठी निवास करता था और उसकी वसुधारा पत्नी थी। उन दोनों को आठ पुत्रों के ऊपर, दो पुत्रियाँ थी। उन दोनों का जया और विजया नाम रखा गया और वे दोनों यौवन-अवस्था में आयी। गंगा तट के उद्यान में क्रियावान्, शौचपरायण, वैद्य-निमित्त शास्त्रज्ञ, बाह्य से माध्यस्थ तथा अंदर से क्रूर परिणामवाला शर्मक नामक संन्यासी रहता था। एकदिन पिता ने आदरपूर्वक पारणे के लिए उसे घर पर बुलाया। बहुमानपूर्वक आसन पर बिठाकर, पिता उसे सुंदर पक्वान, साग आदि पिरसने लगें और हम दोनों पवन वींजने लगें। हम दोनों के रूप पर मोहित होकर, वह सोचने लगा - यदि रंभा सदृश इन कन्याओं का संग न करूँ, तो जप, तप, ध्यान, क्रिया, इन्द्रियरोध तथा जीवन से भी क्या प्रयोजन है? संसार में मृगाक्षि सदृश स्त्रियाँ ही सार है। देवियोंने ब्रह्मा को, गंगा तथा गोरी ने महादेव को गोपियोंने गोविंद को भी क्षोभित कर दिया था। तब मेरा यह कौन-सा व्रत है? इस प्रकार के कुविकल्प से, सरस भोजन का त्यागकर, हृदय में कुछ सोचने लगा। श्रेष्ठी भी व्याकुलित होकर कहा - मुनि! भोजन करे, अब तत्त्वचिंतन से क्या प्रयोजन है? अन्न ठंडा हो जाने पर सुखकारी नही होता है। बार-बार प्रेरणा करने पर उसने कहा - दुःख से जलाएँ जाने पर, भोजन सुखकारी कैसे हो सकता है? ऐसा कहकर दुर्बुद्धि ने कितने ही कवल अपने मुख में डालें।
भोजन करने के बाद श्रेष्ठी ने पूछा - तापस ! आपको क्या दुःख है? उसने कहा - सर्वसंग का त्याग करने पर भी, आप जैसों का संग ही दुःखकारी है। मैं आप जैसे भक्तिमान् तथा सज्जन पुरुष के दुःख को देखने में असमर्थ हूँ। मैं इसके आगे और कुछ नही कहना चाहता हूँ। इस प्रकार कहकर तापस अपने स्थान पर चलने लगा। श्रेष्ठी भी शंका सहित उसके पीछे-पीछे चलने लगा।
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