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राजकुमारों ने देवरथ को घेर लिया। अकेले होते हुए भी, कुमार ने क्षणमात्र में ही उनको जीत लिया। रवितेज राजा उसका शौर्य देखकर विस्मित हुआ। मित्र के द्वारा कहने पर, राजा ने जान लिया कि यह विमलकीर्ति का पुत्र है। कुमार ने अपना स्वाभाविक रूप धारण किया। बाद में रत्नावली से विवाह कर, कितने ही दिन पर्यंत वहीं रहा। वहाँ से प्रयाण कर अपनी नगरी में पहुँचा। रति के साथ कामदेव के समान, कुमार भी रत्नावली के साथ विषयसुख भोगने लगा। एक दिन उस नगर के उद्यान में धर्मवसु गुरु पधारे। नगर के लोगों के साथ, राजा भी उनको वंदन करने के लिए गया। गुरु ने इस प्रकार देशना शुरु की-भव्यप्राणियों! संसार रूपी समुद्र में डूबते प्राणियों के लिए यह विशुद्ध श्रीजिनधर्म ही जहाज के समान माना गया है। रागादि दोषों से मुक्त देव सर्वज्ञ कहलाते हैं। प्रत्यक्ष नहीं होने पर भी, सर्वज्ञ देव को वे ही देख सकते हैं, जिन्होंने इस धर्म को स्वीकार किया है। जो भव्यप्राणी, पंचपरमेष्ठी महामंत्र का नित्य स्मरण करता है, वह शीघ्र ही मोक्ष प्राप्त कर लेता है। जो भोजन करते अथवा सोते समय, मंत्राधिराज का तीन, पाँच अथवा सात बार ध्यान करता है, वह अवश्य ही सुखी होता है।
दृष्टांत के रूप में गुरु ने इस प्रकार कथानक शुरु की-इसी भरतक्षेत्र के सुग्राम नामक गाँव में, स्वभाव से सरल बुद्धिवाला कोई संगत नामक पामर रहता था। उसने एक दिन रहने के लिए मुनियों को उपाश्रय दिया। उन्होंने भी ध्यान करने के लिए संगत को परमेष्ठी मंत्र सिखाया। संगत भी जीवनपर्यंत तक महामंत्र का नित्य स्मरण करता था।
आयु के क्षय होने पर, नंदिनगर के पभानन राजा के रत्नशिख नामक पुत्र के रूप में जन्म लिया। उमर तथा कलाओं से बढ़ता हुआ वह क्रम से यौवनअवस्था में आया। रत्नशिख कुमार के गुणों से रंजित होकर कोशलदेश के राजा ने बडे आडंबरपूर्वक अपनी पुत्री कौशल्या का उसके साथ विवाह किया। एकदिन कुमुदिनी रानी ने पभानन राजा के सिर से एक सफेद बाल निकालकर दिखाया। राजा उसे देखकर अचानक ही वैराग्य मनवाला हुआ। रत्नशिखकुमार को राज्य सौंपकर पत्नी के साथ वनवास गया। मंत्री तथा सामंत राजाओं से युक्त रत्नशिख संपूर्ण मंडल का आधिपत्य प्राप्तकर महाराज हुआ। रत्नशिख राजा को वार्ताविनोद का शौक था। वह कथाकर पंडितों को स्वर्णमुद्रा आदि भेट देता था। एक दिन किसी वक्ता ने वीरांगद-सुमित्र की कथा प्रारंभ की। वह इस प्रकार है -
विजयपुर नगर में सुरांगद राजा राज्य करता था। उसका गुण संपन्न वीरांगद पुत्र था। उसका सुमित्र नामक मंत्री का पुत्र परममित्र था, जो याचकों के मनोरथ पूर्ण करने में चिंतामणि समान, शरणागत के लिए लोहपिंजरे के समान, नीतिमंतों में अग्रगणनीय तथा दीन-दुःखियों पर वात्सल्य युक्त था। एकदिन वे
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