________________
पूर्वभव कह सुनाएँ। तुम दोनोंने समान पुण्य का अर्जन किया है और समान फल भोगा है। तुम दोनों के पूजा रूपी बीज से उत्पन्न यह पुण्य वृक्ष वृद्धि प्राप्त कर चुका है और वह सिद्धि साम्राज्य के लाभ से अवश्य फलीभूत होगा।
भगवान् के वचन सुनकर उन दोनों को जातिस्मरणज्ञान उत्पन्न हुआ। वे दोनों चारित्रधर्म के संमुख बनें। धूल के ढेर के समान पुष्कल राज्य को छोड़कर, बेडी के समान बंधु स्नेह के तंतु को तोडकर, स्त्रियों का तृण के समान त्यागकर उन दोनों ने श्रामण्य स्वीकार किया। तप से कर्म ईंधन को जलाकर, वे दोनो भवश्रेणी के बंधन से मुक्त बनकर, शाश्वतसुख के भोक्ता बनें।
इस प्रकार अज्ञान से आर्जव-मार्दव के विशेष से किया गया द्रव्यस्तव भी उन दोनों के लिए सुख का कारण हुआ। तथा ज्ञान योग से, बहुमान के साथ श्रद्धा से युक्त किया गया तो विशेष कल्याण का कारण होता ही है। इस प्रकार गुरु के मुख से यह कथा सुनकर, देवसिंहकुमार अपनी पत्नी के साथ गुरु के समीप से जिनधर्म प्राप्तकर आनंदित हुआ। पश्चात् मुनि के चरणकमल को नमस्कारकर अपने स्थान पर गया। कितने ही दिन तक वहाँ रहकर, सदैव साधुओं की सेवा से, अनुष्ठान में कुशल हुआ। राजा की आज्ञा लेकर, प्रिया से युक्त कुमार मथुरा आया। बधाई महोत्सव हुआ। अन्य दिन मेघराजा ने अपने पुत्र को राज्य सौंपकर, सद्गुरु के पास दीक्षा ग्रहण की। तप से तपकर स्वर्ग पधारे। देवसिंह भी न्यायमार्ग से राज्य का पालन करता था और अपने गुणों से पृथ्वी पर प्रख्यात हुआ। श्रावकधर्म में अत्यन्त निष्णात हुआ और बारहव्रतों का भी अच्छी प्रकार से पालन करता था। वहाँ से आयुष्य पूर्णकर शुक्रकल्प में विमलद्युति नामक देव हुआ। कनकसुंदरी भी उसी कल्प में देव बनी। एक ही विमान में, प्रीतिपूर्वक रहते हुए उन दोनों ने सतरह सागरोपम की स्थिति पूर्ण की।
इस प्रकार पं.श्रीसत्यराजगणि द्वारा विरचित श्रीपृथ्वीचंद्रचरित्र में देवसिंहराजा का श्रमणोपासक जीवन रूपी तृतीय भव वर्णन संपूर्ण हुआ।
चतुर्थ भव । इसी जंबूद्वीप के पूर्वविदेह के, विभूषण स्वरूप सुकच्छविजय में आग्रामही नामक नगरी है। समृद्धि से विपुल, विमलकीर्ति राजा राज्य करता था और उसकी प्रियमति प्रिया थी। देवसिंह देव भी आयुष्य पूर्णकर, प्रियमति की कुक्षि रूपी सरोवर में हंस के समान, पुत्र के रूप में अवतीर्ण हुआ। तब रानी ने देवरथ को स्वप्न में देखा था। स्वप्न के अनुसार, पिता ने हर्ष से उसका देवरथ नाम रखा। क्रम से वृद्धि पाते हुए, यौवन अवस्था में आया। इसी विजय के रतिरत्न नामक नगर में, रवितेज राजा राज्य करता था। उसकी रतिदेवी पत्नी थी। कनकसुंदरी का जीव स्वर्ग से च्यवकर, प्रबल पुण्य के योग से, रतिदेवी की कुक्षि में पुत्री के रूप
50