Book Title: Pruthvichandra Gunsagar Charitra
Author(s): Raivatchandravijay
Publisher: Padmashree Marketing

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Page 53
________________ हैं। इसी कारण से संत सदा संतोष रहतें हैं। चतुर पुरुष अपने देह की साधना के लिए द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव अनुसार भोग - उपभोग करतें हैं। सखियों की युक्तियुक्त बातें सुनकर, रानी ने संवेगरंग प्राप्त किया और कहा - यह सत्य है कि पराशा पराभव का कारण है। पाँच इंद्रियों की पराधीनता से जिस शब्द आदि विषयों की प्रार्थना की जाती है, वह निश्चय ही आत्मा का पर उद्भाव है। फिर भी जीव व्यर्थ ही सुख का गर्व करता है। इन शब्द आदि को भोगकर, जीव कभी भी तृप्ति का अनुभव नही करता है। इसलिए अब इस मोहविलास से पर्याप्त हुआ। मैं शीघ्र ही स्वाधीन सुख देनेवाली दीक्षा ग्रहण करुंगी। उसके वचन सुनकर विलक्ष बनी सखियों ने पैरों में गिरकर कहा - देवी! देवसेन राजा के द्वारा इस पृथ्वी पर शासन करने पर, आपको लेशमात्र भी पराधीनता नही है। इसलिए आप विलेपन आदि करे, ऐसा मजाक करना योग्य नही है। तब रानी ने कहा - पराधीन भावों से मैंने जान लिया है कि - भवसुख मुख मधुर और विपाक में कटु है। जो धर्म छोड़कर विषयों की अभिलाषा करते हैं, वें अमृतरस को छोडकर विष का भक्षण करतें हैं। इतने काल तक मैं मुनिसमूह से अनुभूत, मोक्ष दायक शम अमृतरस से वंचित थी। उन श्रमणियों ने अपना जीवन सफल किया है, जिनके तप से तपे देह में, दाह के भय से कामदेव ने कभी भी पदार्पण नही किया है। इस प्रकार देवी संवेग मनवाली हुयी। इसी अवसर पर दासी ने आकर कहा - देवी! सुर, असुर, मनुष्य समूह से सेवित श्रीविजय तीर्थंकर उद्यान में पधारे है। स्वामी का आदेश है कि आप शीघ्र तैयार हो जाए। भगवान् को वंदन करने के लिए जाना है। देवी भी तैयार होकर राजा के साथ चल पड़ी। दिव्य समवसरण में जाकर, विधिपूर्वक वंदनकर राजा आदि योग्य स्थान पर बैठे। प्रभु ने पापनाशिनी देशना प्रारंभ की - भव्य प्राणियों! भयंकर भवअरण्य में भ्रमण कर रहें समस्त प्राणियों को दुःख बहुत है और सुख अल्प है। चारों गतियों में भी अपार दुःख है। इसलिए जन्म, जरा, मृत्यु रहित निराबाध, अक्षय ऐसे मोक्षस्थान ही साध्य है। दुर्वासना का त्यागकर निर्वाणपद देनेवाले श्रीजिनधर्म में प्रयत्न करो। इस प्रकार तीर्थंकर की देशना सुनकर भवभ्रमण से भयभीत बने देवसेन राजा ने संसार की असारता जानकर, विषयों से विरक्त हुआ। पश्चात् जिनमंदिरों में अष्टाह्निका महोत्सव कर, सातक्षेत्रों में धन का उपयोगकर, शूरसेनकुमार का राज्याभिषेक किया। दीन-अनाथों को दान देते हुए, बडे आडंबरपूर्वक राजा ने देवी के साथ दीक्षा ग्रहण की। विषय - विकार रहित होकर, निरतिचार चारित्र का परिपालन करने लगें। सिद्धांत का पठनकर काम को जीतकर, मुनि समाधिपूर्वक आयुष्य पूर्णकर ब्रह्मदेवलोक में इंद्र हुआ। रानी भी सुंदर चारित्र का पालनकर, उसी देवलोक में देव बनी। वहाँ पर उन दोनों की मित्रता हुयी। और 48

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