Book Title: Pruthvichandra Gunsagar Charitra
Author(s): Raivatchandravijay
Publisher: Padmashree Marketing

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Page 22
________________ फलाहार करता और उसी वन में रहता । इधर तोते के विरह को सहने में असमर्थ सुलोचना ने भी भोजन करना छोड़ दिया था। दिन-रात विलाप करती और दुःखी होती! राजा के द्वारा नियुक्त सेनानियों ने जाल बिछाकर, तोते को पकड़ लिया और हर्ष से सुलोचना को दिया। कुमारी ने उसे पकड़कर पिंजरे में डाल दिया और कठोर वाणी में कहने लगीअरे! मुझे छोड़कर तू कहाँ चला गया था ? दिन रात मैं तुझे ही याद करती थी। आज के बाद, मैं कभी भी तुझे जाने नहीं दूँगी । इस प्रकार कहते हुए कुमारी ने तोते के दोनों पंख काट दिये और वापिस पिंजरे में रख दिया। बुद्धिमान् तोता भी हृदय मैं सोचने लगा-पराधीन प्राणियों को धिक्कार हो । पराधीन प्राणी अपने हित का आचरण करने में असमर्थ होता है। अहो ! नरकावास के समान अत्यन्त दुःखदायी पराधीनता को धिक्कार हो जहाँ हठ / बलजबरी से नीच कार्य कराये जाते हैं। और फटकारा भी जाता है। साधु के भव में, मैंने अपने स्वाधीन तप क्रिया आदि अनुष्ठान नहीं किये थे । इसलिए अब थोड़ा सा भी धर्म अनुष्ठान करूँगा और आनेवाली विडंबना को सहन करूँगा । इस स्थिति में, मैं जिनेश्वर भगवंत के मुख और चरणकमल के दर्शन से वंचित रह गया हूँ। इस प्रकार आँसु बहाते तोते ने अनशन स्वीकार किया । पाँच दिनों के अनशन के बाद आयुष्य पूर्णकर सौधर्म देवलोक में देव हुआ । सुलोचना भी उसके पीछे अनशन कर मर गयी और उसी देव की वह देवी बनी। वहाँ से च्यवकर, तुम शंखराजा हुए हो और सुलोचना च्यवकर यह कलावती हुई है। पूर्वभव में सुलोचना ने क्रोध से तोते के दोनों पंख छेदे थे, उससे राजन्! तुमने भी क्रोध से इसकी दोनों भुजाएँ काट दी थीं। इस प्रकार सद्गुरु के मुख से अपने पूर्वभव के वृत्तान्त को सुना ! तब पत्नी सहित राजा को जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ। भव समुद्र को तीरने की इच्छावाले राजा ने बोधिलाभ प्राप्त किया। गुरु से कहने लगा- जब तक यह बालक राज्य धुरा को वहन करने में समर्थ न बन जाये, तब तक मैं इसका पालन करूँगा, बाद में दीक्षा अंगीकार करूँगा । हे स्वच्छमतिवाले यति! इस समय तो मुझे गृहस्थ धर्म के नियम दीजिए। यौवन अवस्था को प्राप्त पूर्णकलश नामक पुत्र को राज्य सौंपकर आनंदपूर्वक राजारानी दीक्षा ग्रहण की। सुंदर पालनकर सौधर्म देवलोक में उत्तम देव बने। वहाँ पर भी पूर्वभव के प्रेम से प्रीतिपूर्वक रहने लगे। इस प्रकार श्री सत्यराजगणि द्वारा विरचित श्रीपृथ्वीचंद्रमहाराजर्षि के चरित्र में श्री शंखराजा - कलावती चरित्र वर्णन रूपी प्रथम भव का भाषांतर संपूर्ण । 17

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