Book Title: Pruthvichandra Gunsagar Charitra
Author(s): Raivatchandravijay
Publisher: Padmashree Marketing

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Page 49
________________ इसीबीच उन्मादयन्ती को मृतप्रायः देखकर सभी कुमार चिंतित हुए। उन्होंने जान लिया कि किसी सर्प ने इसे डंसा है। सर्प के विष को उतारने में समर्थ किसी अन्य राजकुमार ने सिद्धगारुडी विद्या से उसे जीवित कर दिया। वापिस विमान में बैठकर सभी राजा के पास आएँ। राजा के द्वारा पूछने पर, उन चारों कुमारों ने अपना-अपना वृत्तांत कह सुनाया। राजा विचारमग्न बनकर सोचने लगा - ललितांग ने विद्याधर को मारा है, ज्योतिष वेत्ता राजकुमार ने स्थान बताया, तीसरे राजकुमार ने विमान बनाकर उन सबको वहाँ पर ले गया, चौथे राजकुमार ने मृतप्रायः इस कन्या को जीवित किया है। चारों भी समान रूपवालें हैं, बडे सामंत राजाओं के पुत्र हैं, बलशाली है और कन्या के दृढ आग्रही है। तीनों का अपमानकर किसी एक को कन्या कैसे दूँ? अथवा कन्या के लिए उचित-अनुचित वर कौन है? यह मैं नही जानता हूँ। चारों ने कन्या की प्रतिज्ञा पूर्ण की है। यह देखकर राजा, मंत्री आदि चिंता-समुद्र में डूबनें लगें। इस व्यतिकर को सुनकर कन्या भी सोचने लगी - ललितांग पर ही मेरा मन है। फिर भी मेरे दुर्भाग्यवश कुमारों का परस्पर विवाद हुआ है। पिता भी इस कलह को देखकर दुःखित है। मेरा रूप ही अनर्थकारी है। मेरे जीवन को धिक्कार हो। इस प्रकार सोचकर उसने माता-पिता से विज्ञप्ति की - आप दोनों विषाद न करें। आप मेरे चिता प्रवेश का प्रबंध करे, जिससे सब स्वस्थ हो जाएगा। अन्यथा यहाँ पर बहुत संहार होगा और लोगों में भी निंदा होगी। पुत्री के वचन सुनकर राजा ने सुबुद्धिमंत्री से कहा - मंत्री! संकट में गिरे हमें देखकर, मौन क्यों हो? मंत्री की वही बुद्धि प्रशंसनीय है, जो विषमकार्य को सरल बनाने में समर्थ हो। कार्य सरल होने पर उसकी बुद्धि का क्या प्रयोजन है? राजा की बातें सुनकर, मंत्री ने कहाकन्या अपने कथन अनुसार करें। मैं परिणाम विशेष से वर का प्रयत्न करूँगा, जिससे वर-कन्या दोनों सुखी होंगें और हमारा भी कल्याण होगा। राजा की आज्ञा से सुगंधि लकडों से वहाँ पर चिता की रचना की गयी। मंत्री ने चारों कुमारों को बुलाकर कहा - तुम समान गुणवालें हो और संमाननीय हो। इसलिए तीनों का अपमानकर, कन्या एक को कैसे दी जा सकती है? अग्नि में प्रवेश कर रही इस कन्या को अनुमति दें। यदि आप में से कोई कन्या पर गाढ़ अनुरागवाला है, तो वह कन्या का अनुसरण करे, क्योंकि स्नेह का फल यह ही है। मंत्री की बातें सुनकर, सभी सोचने लगें - अहो! मंत्री की बुद्धि! विवाद मिट गया है और हमारा संमान भी हुआ है। इसलिए कन्या का यह कार्य उचित है। राजपुत्र इस प्रकार कह रहे थे, उतने में ही कन्या श्रृंगार आदि से सज्ज होकर, याचकों को दान देती हुयी वहाँ पर आयी। उसने चिता में प्रवेश किया। पश्चात् चारों ओर अग्नि प्रकट की गयी। इधर ललितांग सोचने लगा - मेरी प्रिया अकेली 44

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