Book Title: Pruthvichandra Gunsagar Charitra
Author(s): Raivatchandravijay
Publisher: Padmashree Marketing

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Page 50
________________ अग्नि में कैसे प्रवेश कर सकती है? इसके बिना मुझे जीवन से क्या प्रयोजन है? ऐसा विचारकर सामंत, मंत्री, मित्रों के द्वारा मना करने पर भी, शीघ्र ही ललितांग ने अग्नि में प्रवेश किया। यह देखकर सभी आश्चर्यचकित हो गए। ललितांग को देखकर उन्मादयन्ती ने कहा - आर्यपुत्र! मुझ निर्भागी के लिए यह क्या किया? जबतक ललितांग उसे प्रत्युत्तर दे, उतने में ही मंत्री के द्वारा नियुक्त पुरुषों ने सुरंग का दरवाजा खोल दिया। उस मार्ग से वे दोनों मंत्री के महल में पहँच गएँ। चिताग्नि को देखने में असमर्थ राजकुमार परस्पर आलाप करने लगें। तब मंत्री ने कहा - अहो! ललितांग का साहस, अहो! उसका पत्नी का स्नेह! तुमने प्राणों की प्रीति से राजकन्या को छोड़ दी है। यदि देवता की सान्निध्यता से वे दानों जीवित है, तो पुनः जन्म की प्राप्ति से कुमारी को स्वीकार करने के लिए ललितांग योग्य है, तुम नही। उन्होंने कहा – यदि ऐसा होगा तो हमें इस विषय में कुछ नही कहना है। इस प्रकार उन राजकुमारों के द्वारा स्वीकार करने पर, मंत्री ने सत्य हकीकत कह सुनायी और अपने महल से उन दोनों को बुलाया। उन दोनों को देखकर सभी विस्मित हुए। राजा ने शीघ्र ही आनंदपूर्वक उनका विवाह महोत्सव मनाया। ललितांगकुमार ने उन्मादयन्ती के साथ अपने नगर की ओर प्रयाण किया। पिता ने बड़े आडंबरपूर्वक उनको नगर प्रवेश कराया। उन्मादयन्ती के साथ दोगुन्दुक देव के समान पंचविध विषयों का उपभोग करते हुए, ललितांग का बहुत समय व्यतीत हो गया। पिता ने सुमुहूर्त में, ललितांग को राज्य पर स्थापित किया और वह पिता के समान प्रजा का पालन करने लगा। एकदिन विकसित कमलों से शोभित शरऋतु में, ललितांग, उन्मादयन्ती के साथ झरुखे में बैठा था। उतने में ही आकाश में मेघ समूह से निर्मित पंचवर्णवालें महल को देखा। क्षणमात्र में ही हवा के द्वारा बिखेर जाने पर, राजा खेद प्राप्त करने लगा। राजा ने अपनी प्रिया से कहा - प्रिये! विधाता ने महल के प्रेक्षण में विघ्न डाला है। तुम शरद् मेघों की चपलता देखो, जिसने क्षणमात्र में ही सुंदर महल को भी नष्ट कर दिया है। जिस प्रकार ये बादल हैं, वैसे ही धन, आयु, जीवन आदि मिलतें है और नष्ट हो जाते हैं। वायु के समान आयु अनित्य है। चतुरंग सेना के धारक राजा को भी मृत्यु पलभर में अपना कवल बना लेती है। काम का प्रवर्धक और रोग का मूल तारुण्य भी भयंकर है। शरीर भी सप्त धातुमय तथा अशुचि का स्थान है। इस काया में कौन सी सारता (शुद्धता) है? विषयसुख भी दुःख का कारण है, इस संसार में सुख कहाँ है? जब राजा इस प्रकार के वैराग्य में लीन था, तब आकाश को विमानों से आकुलित देखकर और पृथ्वी पर विविध वाजिंत्रों के घोष सुनकर राजा कुतूहल बना। उसी समय वनपालक ने आकर विज्ञप्ति की - देव! आज उद्यान में जिनेश्वरभगवंत ने पदार्पण किया है। राजा ने उसे लाख स्वर्ण मुद्राएँ दी 45

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