Book Title: Pruthvichandra Gunsagar Charitra
Author(s): Raivatchandravijay
Publisher: Padmashree Marketing

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Page 26
________________ रागी नहीं बनते हैं जिस प्रकार अनदेखे लोगों के गुणों को श्रवणकर रागी बनते हैं। कामांध बने राजा की संपूर्ण धर्मबुद्धि भी मन से भ्रष्ट हो गयी। कामीलोगों को अकृत्य क्या हो सकता है? कहा गया है कि पुरुष तंब तक ही बुद्धिमान् कहलाता है, जब तक वह कामांध न बन जाये। नटकन्या में आसक्त बने इलापुत्र ने अपने कुल को भी कलंकित कर दिया था। राजा सोचने लगा-एक ओर कुल की मलिनता, दूसरी ओर काम की पीड़ा। राजा खुद को सिंह और तट की परिस्थिति में फंसा पाया। यदि उस व्यापारी में कोई दोष निकालकर, उसकी स्त्रियों को ग्रहण कर लूँ, तो लोक में मेरा अपयश भी नहीं होगा। इस प्रकार निश्चित कर, राजा रहस्य में पुरोहित को बुलाकर कहने लगा-कपटता का प्रयोगकर, श्रेष्ठी विनयन्धर से मैत्री करना। भोजपत्र पर इस श्लोक को लिखवाकर किसी को मालूम न पड़े वैसे रहस्य में मुझे देना। वह श्लोक इस प्रकार है अद्याभाग्यनियोगेन त्वद्वियोगेन सुंदरि। __ शर्वरी सा त्रियामाऽपि शतयामेव मेऽभवत्। सुंदरी! आज तेरे वियोग रूपी अभाग्य के संबंध से, तीन प्रहरवाली यह रात्रि भी मुझे सो प्रहरवाली के समान मालूम पड़ रही है। इस प्रकार राजा ने पुरोहित को शिक्षा देकर भेज दिया। पुरोहित ने भी विनयन्धर से मैत्री की। उससे वह श्लोक लिखवाकर राजा को दे दिया। राजा ने भी भोजपत्र पर लिखे गये उस छंद को सुगंधी पदार्थ में बांध दिया। बाद में दासी को बुलवाकर, सभा में मंगवाया। श्लोक को नगर के मंत्रियों को दिखाकर, राजा ने कहा-रानी के सुगंधी गंधपुट पर यह किसने लिखा है? उसकी परीक्षा करो। लिपि के अक्षरों को पढ़कर सभी मंत्री विनयन्धर के बारे में चर्चा करने लगे। चतुर मंत्री अपने चित्त में सोचने लगे -जिस प्रकार दूध में पोरे की संभावना नहीं होती है, वैसे ही विनयन्धर में भी दोष की संभावना नहीं है। किन्तु उसकी लिपि प्रत्यक्ष दिखायी दे रही है। यहाँ कोई रहस्य होना चाहिए। तब मंत्री मिलकर राजा से कहने लगे-जो हाथी सदैव द्राक्ष के उद्यान में क्रीड़ा करता है, वह कभी भी वांस के अंकुरों पर अथवा करेडे पर आसक्त नहीं होता है। क्षणमात्र के लिए भी, जो व्यक्ति विनयन्धर के साथ गोष्ठी करता है, वंजुल (बरु) से सर्प के समान वह व्यक्ति भी विष रूपी पाप से दूर हो जाता है। हमारा सूचन है कि आप सब तत्त्व के द्वारा अपने हृदय में विचार करें। किसी चुगलीखोर की ही यह चालबाजी है। वह दुर्जन पुरुष सर्प से भी अतिवक्र होगा। क्योंकि सर्प, नोलियें का द्वेषी होता है किन्तु दुर्जन तो खुद के कुल का द्वेषी होता है। राजा ने उनके वचनों को निरंकुश हाथी के समान अवज्ञाकर, न्यायमार्ग से विमुख बन गया। क्रोध से उग्र बनकर, राजा ने सुभटों को भेजा और विनयन्धर 21

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