Book Title: Pruthvichandra Gunsagar Charitra
Author(s): Raivatchandravijay
Publisher: Padmashree Marketing

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Page 34
________________ करवत के समान कर्कश उसकी बातों को सुनकर ऋद्धिसुंदरी अपने अभिप्रायों को छिपाती हुई चित्त में सोचने लगी-यह इसी दुष्ट की चेष्टा दिखायी देती है। अनर्थ का कारणभूत मेरे रूप को धिक्कार हो, जिसके लिए इसने ऐसी आचरणा की है। वास्तविक में कामीपुरुष क्या नहीं कर सकते हैं? तो क्या पति रहित बनी मैं भी समुद्र में गिर जाऊँ? किन्तु श्रीजिनधर्म में बालमरण का निषेध किया गया है। तो फिर मैं जीवित रहकर सुकृत (पुण्य) का उपार्जन करूँगी क्योंकि संसार में मानवभव अत्यन्त दुर्लभ है। मैं अखंडशील सहित इस समुद्र से तट को प्राप्त करूँगी। शील की रक्षा के लिए मुझे कालक्षेप करना चाहिए, जिससे कि आशा रूपी पाशे में बंधा हुआ यह सुलोचन सौ वर्ष भी बिता दे। ऋद्धिसुंदरी ने सुलोचन से कहा-हा! अब मेरा कौन आधार है? इसलिए समुद्र पार करने के बाद, मैं यथोचित करूँगी। ऐसे ऋद्धिसुंदरी ने उसे आशारूपी पाशे में बांधा। सुलोचन ने भी इस बात को स्वीकार किया। कुछ समय पश्चात् कच्छे बर्तनों के समान, जहाज भी तूट गया। पुण्य के योग से, ऋद्धिसुंदरी ने लकडे के पाट को पकड़कर, समुद्र पार किया। धर्मश्रेष्ठी भी पूर्व में भांगे हुए जहाज के लकडे की सहायता से उसी तट पर आया। दैवशात् दोनों दंपति वापिस मिलें और अपनी-अपनी अनुभव की गयी घटना के बारे में कहा। किसी गाँव के स्वामी ने उन दोनों को देखा। आदर सहित उनको अपने घर ले गया। हर्ष से अतिथि-सत्कारकर, धर्म से वही रुकने को कहा। वे वहीं रहे। इधर सुलोचन को भी जहाज के पटिये की सहायता मिली। वह भी तट पर पहुँचा। किसी पल्ली में मछली का आहार करने से उसे कुष्ठ रोग हुआ। ऋद्धिसुंदरी ने भ्रमण करते सुलोचन को मूर्च्छित अवस्था में देखा और अपने पति को दिखाया। और उसे अपने स्थान पर लाया। कृपालु धर्म ने औषध उपचारकर, उसे नीरोगी बनाया। कहा गया है कि उपकारिषूपकारं कुर्वन्ति प्राकृता अपि प्रायः। अपकारिष्वपि ये चोपकारिणस्ते जगति विरलाः ॥ प्रायः कर सामान्य लोग भी उपकारियों पर उपकार करते हैं। किन्तु जगत् में वे विरल हैं, जो अपकारियों पर भी उपकार करते हैं। सुलोचन धर्मश्रेष्ठी की अद्भुत सज्जनता देखकर, खुद की दुष्ट चेष्टा से लज्जित बनकर, नीचे मुख किया। धर्म ने उसे खेद का कारण पूछा। सुलोचन ने कहा-मेरा दुष्ट चरित्र ही हृदय में अत्यन्त पीड़ा कर रहा है। मैंने अज्ञान से मूर्ख बनकर तुझे समुद्र में फेंका था, और कामांध बनकर इस सती की इच्छा की थी। उसका फल मैंने यहाँ ही प्राप्त कर लिया है। बाद में महात्मा धर्मश्रेष्ठी ने युक्तिपूर्वक उसे बोध दिया। सुलोचन भी परस्त्री विरति के धर्म में स्थिर बना। साध्वी के द्वारा दिये गये व्रत को, 29

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