Book Title: Pruthvichandra Gunsagar Charitra
Author(s): Raivatchandravijay
Publisher: Padmashree Marketing

View full book text
Previous | Next

Page 43
________________ एकदिन वहाँ पर चार ज्ञान से युक्त सुरगुरु नामक सूरिभगवंत पधारे। उनका आगमन सुनकर जितशत्रुराजा परिवार तथा नागरिक लोगों के साथ उद्यान में गया। परिवार सहित सूरिभगवंत को तीन प्रदक्षिणा देकर वंदन किया और अपने स्थान पर बैठा। गुरुभगवंत ने इस प्रकार देशना प्रारंभ की - कषाय रूपी दीवार तथा राग-द्वेष रूपी कपाट से युक्त, घोर अंधकार से भरा हुआ यह संसार रूपी कारागृह अत्यंत निःसार है। इस बंदिखाने में फंसे प्राणियों को कुटुंब का बंधन होता है। चतुरपुरुषों को सदा धर्म में प्रयत्न करना चाहिए। धर्म के प्रभाव से विपदा नष्ट हो जाती है और इहलोक-परलोक में सुख की प्राप्ति होती है। मोक्ष का उपाय ही प्रशस्य है और वह भगवान् की आज्ञा का परिपालन करने से मिलता है। आज्ञा दो प्रकार की है - द्रव्य और भाव स्तव। सर्व जीवों पर दया यह भावस्तव है। साधुओं के लिए पाँच महाव्रत और रात्रिभोजन विरमण व्रत तथा पाँच समिति, तीन गुप्ति रूपी अष्टप्रवचनमाता भावस्तव रूप है। क्षमा आदि दश प्रकार का धर्म, साधुओं का मूल धर्म कहा जाता है, पिंडविशुद्धि आदि उत्तरगुण है। इनकी सम्यग् आराधना करने से मोक्षफल की प्राप्ति होती है। इसलिए जीवनपर्यंत इसकी आराधना करनी चाहिए। इसे स्वीकार कर उपसर्ग, परीषह आदि सहन करने चाहिए। पुरुषार्थ विशेष से इसकी आराधनाकर प्राणी भव-कैद से मुक्त हो जाते हैं। इसलिए भव्यप्राणियों! भव-कारावास से मुक्ति चाहते हो तो आदरसहित जिनेश्वर भगवंत की आज्ञा की आराधना करो। ___ चारित्रमोहनीय के उदय से यदि साधु धर्म पालन करने में असमर्थ हो तो चारित्रधर्म की प्राप्ति के लिए पाँच अणुव्रत, चार शिक्षाव्रत और तीन गुणव्रत रूपी श्रावकधर्म का पालन करो। तथा जिनमंदिर और प्रतिमा का निर्माण कराओ। विधि से प्रतिमा की प्रतिष्ठा करो, पूजा करो तथा सुपात्रों में दान दो। इस प्रकार कुशल आशयवाले मनुष्य गृहस्थधर्म का परिपालन करते हुए संसार पर्यटन को अल्पकर, स्वर्ग आदि सुखों को भोगते हुए क्रम से मोक्ष का आश्रय लेते हैं। जो जिनभवन का निर्माण कराते हैं, वे संसार-समुद्र से तीर जातें हैं। जीर्णोद्धार करानेवाले सर्व पापों से मुक्त बन जाते हैं। जिनेश्वर की प्रतिमा निर्माण करानेवाले रोग, शोक, भय आदि से रहित होकर शीघ्र ही मोक्ष प्राप्त करते हैं। अरिहंतप्रतिमा की प्रतिष्ठा करनेवाले, देवलोक में प्रतिष्ठा प्राप्त करतें हैं और उनके दुःख, दौर्भाग्य नष्ट हो जातें है। श्रीवीतराग की पूजा करनेवाले भव्यप्राणी, अनंतभवों में उपार्जित पापकर्मों का क्षय करतें हैं। विधि से किया गया द्रव्यस्तव, भावस्तव का कारण होता है तथा सात या आठ भवों में ही मोक्ष प्रदाता होता है। पुनः धर्म परिणाम के विशेष से अनाभोग से करने पर भी शुक (तोते) के युगल के समान निश्चय ही कुशल उदय का कारण होता है। तब देवसिंहकुमार ने सूरिभगवंत से 38

Loading...

Page Navigation
1 ... 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136