Book Title: Pruthvichandra Gunsagar Charitra
Author(s): Raivatchandravijay
Publisher: Padmashree Marketing

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Page 37
________________ वेदरुचि ने कहा-खेद मत करो। मैं अपने प्राण देकर भी तुझे स्वस्थ करूँगा। सुंदरी! तेरे हृदय को कठोर करो। यह, मैं तेरा सेवक तेरा आज्ञाकारी बन चुका है। यदि तू कहे तो मैं तुझे श्रावस्तिनगरी में रहे तेरे घर पर छोड़ दूंगा। गुणसुंदरी ने कहा-जैसे तैसे बोलनेवाले चुगलीखोरों को निंदा करने से कैसे रोका जा सकता है? तब वेदरुचि ने कहा-मैं ही तेरे पति के सामने साक्षी बनूंगा। __ वेदरुचि ने उसे वाहन में बिठाकर, श्रावस्तिनगरी ले गया। गुणसुंदरी को देखकर स्वजन भी संतुष्ट हुए। गुणसुंदरी ने अपने पति से कहा-पुण्यशर्मा ब्राह्मण के इस पुत्र ने, मुझे दुष्ट भीलों से छुड़ाया है। इसने मुझ पर उपकार किया है ऐसा सोचकर, नंदन ने उसे वस्त्र, भोजन आदि सामग्री से सत्कार किया। वेदरुचि भी मैं अपराधी हूँ ऐसा विचारकर शंकित मनवाला हुआ। प्रयाण करने की इच्छा से, वह रात के समय श्रावस्तिनगरी से निकलने लगा। किसी दुष्ट सर्प ने उसे डंस लिया। वेदरुचि चिल्लाने लगा। वैद्य ने विष से उत्पन्न पीड़ा को दूर करने का प्रयत्न किया। भयंकर विष रूपी लहरियों से वेदरुचि के प्राण कंठ में आ गये। वैद्यों ने भी उसका उपचार करना छोड़ दिया। तब गुणसुंदरी ने कहा-यदि इस जगत् में शील जयवंत है और मैंने मन-वचन-काया से भी शील का खंडन न किया हो तो, यह विषरहित बन जाये। इस प्रकार कहकर, गुणसुंदरी ने उस पर जल का छिड़काव किया। तुरंत ही वेदरुचि भी विषरहित बन गया। शील की महिमा देखकर, नगर के लोग भी अश्चर्यचकित हुए और हर्ष प्राप्त किया। वेदरुचि यह बात जानकर हर्षोल्लास से कहने लगा-पहले भी मैंने तुझे बहन के रूप में स्वीकारा था। और अब जीवनदान देने से मेरी माता बनी हो। पाप की बुद्धि दूर करने से गुरु भी हो। मंदभागी मैं तेरा कौन-सा इष्टकार्य कर सकता हूँ? मैंने तेरी महिमा को जान ली है। मैंने तुझ पर बहुत पाप का आचरण किया है। गुणसुंदरी ने कहा-भाई! यदि तुम परस्त्री से विमुख बन जाये, तो समझूगी कि तूंने मुझ पर उपकार किया है। क्योंकि परस्त्रीविरमण व्रत से इहलोक और परलोक में भी सैंकड़ों सुख मिलते हैं। वेदरुचि ने भी उसकी बात स्वीकार की। अपने पापों की क्षमा मांगकर, वापिस अपनी नगरी लौट गया। गुणसुंदरी ने भी उल्लासपूर्वक शील का परिपालन किया। ॥ गुणसुंदरी चरित्र संपूर्ण ॥ इस प्रकार सत्त्वशाली रतिसुंदरी आदि उन चारों ने अपने-अपने नियम का परिपालन कर, स्वर्ग में देवियाँ बनीं। वहाँ से च्यवकर, ये चारों भी इस नगरी में अवतीर्ण हुई हैं। राजन्! मैं क्रम से उनके बारे में कहता हूँ, तुम सुनो। इस नगरी के कांचन श्रेष्ठी और वसुधारा की तारा नामक पुत्री है, वह ही रतिसुंदरी का जीव है। कुबेरश्रेष्ठी और पद्मिनी की श्री नामक पुत्री है, जो पूर्व भव में बुद्धिसुंदरी थी। 32

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