Book Title: Pruthvichandra Gunsagar Charitra
Author(s): Raivatchandravijay
Publisher: Padmashree Marketing

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Page 29
________________ सोती, खाती, बैठती और फिरती थी। क्षणमात्र के लिए भी, वे एक-दूसरे से अलग नहीं होती थीं। ___एक दिन चारों कन्याएँ सुमित्रश्रेष्ठी के घर बैठी हुई थी। वहाँ पर गुण श्री नामक साध्वी आयी। उन्होंने हर्ष से स्वागत किया। तब रतिसुंदरी ने पूछा-सखि! श्वेत वस्त्र को धारण करनेवाली यह कौन है? जो मूर्तिमंत सरस्वती के समान नयनों को आनंद दे रही है। श्रेष्ठी की पुत्री ने कहा-यह हमारी पिता की अत्यन्त पूजनीय तपस्वी है जो मूर्तिमंत संतोष रूपी लक्ष्मी और श्रुत की अपूर्ण वाणी के समान दिखायी पड़ रही है। इनको नमस्कार करनेवाले, इनकी सेवा करनेवाले और इनकी वाणी सुनने में प्रयत्नशील मनुष्यों को धन्य है। प्रशस्त पुण्य से युक्त उन कुमारियों ने साध्वी को वंदन किया। साध्वी ने भी सविस्तार अर्हत् धर्म के स्वरूप को समझाया। तुरंत ही उन कन्याओंने मिथ्यात्व के क्षयोपशम से, सम्यक्त्वमूल गृहस्थधर्म का अंगीकार किया। वे परपुरुष संगत्याग के नियम में विशेष दृढ़ थी। क्योंकि कुलीन स्त्रियों का शील ही अभ्यन्तर भूषण है। भव-भव में भी मानवभव भौतिक सामग्री सुलभ है किन्तु यह शील लक्ष्मी प्राप्त करना अत्यन्त दुर्लभ है। इस प्रकार वे चारों भी जैनधर्म का शुद्ध परिपालन करने लगी। और कितना ही समय सुखपूर्वक बीताया। एक दिन रतिसुंदरी के अद्भुत रूप अतिशय के बारे में सुनकर, चन्द्रराजा ने उससे विवाह करने के लिए अपने गुप्तचर को भेजा। पिता के द्वारा रतिसुंदरी को स्वयंवर की अनुज्ञा देने पर, चंद्रराजा ने महोत्सवपूर्वक उससे विवाह किया। नगर की स्त्रियाँ रतिसुंदरी का रूप देखकर आश्चर्यचकित होती हुई कहने लगी-क्या यह कामदेव की पत्नी रति है अथवा इन्द्राणी है अथवा लक्ष्मी है अथवा पार्वती है? विविध राज्यों में उसके रूप का ही वर्णन होने लगा। एकदिन कुरुदेश के राजा, महेन्द्रसिंहराजा ने यह बात सुनी। उसने रतिसुंदरी के लिए चंद्रराजा के पास दूत भेजा। दूत भी चंद्रराजा से कहने लगा-चंद्र! मेरे स्वामी ने तुझे इस प्रकार संदेशा दिया है कि - पूर्व से ही हम दोनों के बीच हार्दिक मित्रता चली आ रही है, इसमें कोई संशय की बात नहीं है। तुझे जो कुछ भी दुःसाध्य कार्य है, वह कहना। क्योंकि हम दोनों प्रीतिपात्र के बीच केवल देह का ही अंतर है।; और दूसरी बात यह है कि-जो यह तेरी नवविवाहित पत्नी रतिसुंदरी है, उसको मेरे पास भेजना। कहा भी गया है कि प्रीतिपात्र के बीच अदेय कुछ भी नहीं होता है। दूत की बातें सुनकर, चंद्रराजा हँसा और कहने लगा-दूत! तू अपने स्वामी से कहना कि-जो तुम्हारा कुछ अन्य कार्य हो तो शीघ्र आज्ञा करना। प्राणांत कष्ट आने पर भी, कुलीन पुरुषो का स्त्रीसमर्पण योग्य नहीं है। तब दूत ने कहा-महेन्द्रराजा देवी के दर्शन के लिए अत्यन्त उत्कंठ है। उसके कही बात का 24

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