Book Title: Pruthvichandra Gunsagar Charitra
Author(s): Raivatchandravijay
Publisher: Padmashree Marketing

View full book text
Previous | Next

Page 23
________________ द्वितीय भव भरतक्षेत्र के मणिपिंगल नामक देश में पोतनपुर नामक नगर है। वहाँ शजय नामक राजा राज्य करता था। विष्णु को लक्ष्मी के समान, इन्द्र को इन्द्राणी के समान, शंकर को पार्वती के समान, शत्रुजय राजा को वसंतसेना रानी थी। मानस सरोवर में हंस के समान, वह शंखराजा का जीव देवलोक से आयुष्य पूर्णकर वसंतसेना की कुक्षि में आया। तब रानी ने स्वप्न में कमल के समूह को देखा था। गर्भ के प्रभाव से, रानी को दीन आदि मनुष्यों को दान देने का दोहद उत्पन्न हुआ। राजा ने भी उसे शीघ्र पूरा कर दिया। जिस प्रकार पूर्व दिशा सूर्य को, रोहण पृथ्वी सुंदर रत्न को जन्म देती है, उसी प्रकार रानी ने भी सुखपूर्वक, भुवन को आनंददायक पुत्र को जन्म दिया। दासी ने आकर, राजा को बधाई दी। राजा ने भी उसे ईनाम दिया। राजा ने लोगों को आनंदित करनेवाला पुत्र जन्ममहोत्सव मनाया। कमल समूह के स्वप्न से राजा ने उसका कमलसेन नाम रखा। शुक्लपक्ष के चंद्र के समान कमलसेन भी बढ़ने लगा। बाल वय को छोड़कर यौवन अवस्था में आया। पूर्वभव के संस्कारों से वह विषयसुख से अत्यन्त विमुख था क्योंकि पूर्वभव के संस्कार ही प्राणियों के पीछे आते हैं। कमलसेन सतत सकल कलाओं का अभ्यास करता था। अन्यदिन वह क्रीड़ा करने के हेतु से, अपने मित्रों के साथ नंदनवन गया। वहाँ उन्होंने विकसित फूलों की सुगंध से, मधुर गुंजराव करते मधुमक्खी से, मत्त कोयलवधू के पुष्कल गीत समूह से तथा वसंतऋतु से विशेष विकसित बने सुंदर वन को देखा। साथी मित्र लोग यहाँ-वहाँ क्रीड़ा करने के लिए लीला पर्वतों पर खेलने लगे। पर्वत के किसी प्रदेश पर रहे कमलसेन ने अहो! यह जगत् नायक रहित है, इस प्रकार किसी के शब्दों को सुना। तब कमलसेन सोचने लगा-अहो! न्याय मार्ग से, पृथ्वी की रक्षा करनेवाले मेरे पिता राज्य की परिपालना कर रहे हैं, तो यह विश्व नायक रहित कैसे हो सकता है? कमलसेन हाथ में तलवार लेकर, भय रहित होते हुए चारों ओर देखने लगा। किन्तु किसी को भी नहीं देखा। कुमार उन शब्दों को बार-बार सुनने लगा और बार-बार दसों दिशाओं में देखने लगा। दूर पर, देवमंदिर में प्रवेश करती किसी स्त्री को देखा। निश्चय ही यह शब्द इसी स्त्री के हैं। तो मैं इसे ही पूछता हूँ ऐसा सोचकर कुमार भी देवमंदिर में गया। उतने में ही वह देवमंदिर आकाश में उड़ गया और वायुवेग से आगे बढ़ने लगा। दूर किसी प्रदेश पर उतरकर, वहाँ स्थिर हो गया। कुमार यह देखकर आश्चर्यचकित हो गया। इसी बीच कुमार ने पूर्व में देखी कन्या को, किसी दूसरे भवन से निकलती हुई देखी। वत्स! तेरा स्वागत है, इस प्रकार कहकर कुमार को आसन दिया। कुतूहल से कुमार भी बैठ गया। बाद में कुमार ने पूछा-भद्रे! तू कौन है? क्या यह 18

Loading...

Page Navigation
1 ... 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136