Book Title: Pruthvichandra Gunsagar Charitra
Author(s): Raivatchandravijay
Publisher: Padmashree Marketing

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Page 20
________________ सूरि भगवंत के वचनों से अत्यंत आनंद के आवेश से खिल उठे राजा ने गुरु के समीप रहकर ही वह दिन बिताया। रात्रि के समय शंख राजा उसी उद्यान में सो गया। जाग्रत के समान राजा ने रात्रि के शेष भाग में इस प्रकार स्वप्न देखा-किसी स्थान पर रहे कल्पवृक्ष पर, एक फलवाली लता उत्पन्न हुई। किसीने अचानक ही उस लता को काट दी और वह पृथ्वीतल पर गिर गयी। बाद में शीघ्र ही वह सुंदर फलवाली हो गयी। और वह लता पूर्ववत् स्वयं ही कल्पवृक्ष से जुड गयी। आनंदित होते हुए, राजा ने प्रातः उस स्वप्न के बारे में गुरु से पूछा। उन्होंने कहावह कल्पवृक्ष तू ही था और जो लता काटी गयी थी वह तेरी बिछड़ी हुई प्रिया है। बाद में जो तूने मनोहर फल से युक्त लता, वापिस कल्पवृक्ष पर देखी थी, उससे यह सूचित होता है कि आज पुत्र सहित कलावती तुझे जरूर मिलेगी। ऐसा ही हो। इस प्रकार कहकर राजा ने दत्त को आदेश दिया-मैं मानता हूँ कि मैंने खराब कार्य किया है, तो भी तुम वहाँ जाकर जीवित कलावती को यहाँ ले आओ। बाद में यथोचित करूँगा। __दत्त भी उस अटवी में गया और किसी तापस से पूछने लगा-क्या आपने आज अथवा कल किसी स्त्री को यहाँ देखी थी? उस स्त्री का प्रसव समय नजदीक आ गया था। तो क्या उसने बालक को जन्म दिया है अथवा नहीं? यह सब सत्य हकीकत जानने के लिए मेरा मन उत्सुक है। तब तापस ने पूछा-तुम कहाँ से आये हो? दत्त ने कहा-शंखपुर से। तापस ने पूछा-क्या राजा ने अब भी इस पर से क्रोध नहीं छोड़ा है? जो पुनः इसकी खोज करवा रहा है? दत्त ने कहायह कहानी बहुत लंबी है। हम उससे मिलने को उत्सुक हैं। अब हम कुछ भी कहने में असमर्थ हैं। किन्तु यदि राजा आज इसे जीवित नहीं देगा, तो अवश्य ही जलती अग्नि में प्रवेशकर, अपने प्राणों की आहूति दे देगा। यदि आप उसके बारे में कुछ भी जानते हो तो कहें। तापस के आश्रम में राजा की पत्नी जीवित है यह सुनकर दत्त, तापस के साथ कुलपति के पास गया। कुलपति ने वृत्तांत को जानकर, दत्त को कलावती दिखायी। दत्त को देखकर कलावती रोने लगी। दत्त ने सुंदर वचन से उसको आश्वासन दिया। दत्त स्वयं कलावती के पैरों में गिरकर, उससे विज्ञप्ति करने लगा-क्रोध को छोड़ दो और राजा के अपराध को क्षमा करो। ज्यादा समय गँवाना ठीक नहीं है। कलावती! तेरे बिना राजा अग्नि प्रवेश करने के लिए तैयार हो गये हैं। उनकी रक्षा करो। पश्चात् कलावती कुलपति की आज्ञा लेकर रथ में चढ़ी। दत्त भी उसे साथ लेकर शंखपुर की ओर प्रयाण किया। शंखराजा कलावती को देखकर आनंदित हुआ किन्तु शर्म से नीचे मुख किया। अवसर प्राप्तकर शंखराजा कलावती से कहने लगा-प्रिये! मुझ अज्ञ ने व्यर्थ ही निरपराधी तुझे दंड किया था। जिस प्रकार वंजुल (अशोक, बरु, नेतर) 15

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