Book Title: Pruthvichandra Gunsagar Charitra
Author(s): Raivatchandravijay
Publisher: Padmashree Marketing

View full book text
Previous | Next

Page 12
________________ भयंकर अटवी है। राजा दिखायी नहीं दे रहे हैं और उद्यान भी? तो क्या तुम मुझे ठग रहे हो? न तो वाजिंत्रों का घोष सुनायी दे रहा है और न ही मनुष्यों का कोलाहल! क्या यह स्वप्न है अथवा इंद्रजाल? जो सत्य हकीकत है, वह कहो। __ कलावती के दीन वचनों को सुनकर, निष्करुण सुभट भी अत्यन्त करुणाशील बन गया और देवी को जवाब देने में असमर्थ हुआ। देवी के अत्यन्त आग्रह से निष्करुण सुभट रथ से नीचे उतर गया। शोकपूर्वक, अस्पष्ट शब्दों में दुःख से कहने लगा-निष्करुण (करुणा रहित) मुझको धिक्कार हो। क्योंकि यह कार्यकर मैंने अपने नाम को यथार्थ कर दिया है। अहो! राजसेवा की परवशता से मुझसे यह कार्य करवाया गया है। स्वार्थ परवशता के कारण मुझे धिक्कार हो। स्वामी का अच्छा-बुरा कार्य भी नौकर को करना पड़ता है। इसलिए मैं आप से आग्रह कर रहा हूँ कि आप रथ से उतर जायें। राजा का ऐसा आदेश है। दूसरा इसके बारे में मैं कुछ नहीं जानता हूँ। वज्रपात से भी अधिक कर्णकटु उस वचन को सुनकर देवी रथ से उतरते समय भूमि पर गिर पड़ी और मूर्च्छित हो गयी। बाद में वन के पवन से होश में आयी। रथ पर चढा हुआ निष्करुण भी करुणा से रोने लगा। देवी ने दीनता युक्त विलाप किया। उतने में ही छोटी तलवार को नचाती हुई और साक्षात् प्रेत की प्रियाओं के समान राजा के द्वारा नियुक्त की गयी चांडाल की स्त्रियाँ वहाँ आयी। निष्कारण ही उन्होंने अत्यन्त क्रोध धारण किया और भ्रूकुटी चढ़ाकर कहने लगी - रे दुष्ट! खराब चेष्टा करनेवाली! तू राजा के न्याय को नहीं जानती है। तूने प्रतिकूल वर्तन किया है। उससे अपने पाप का फल भोग इत्यादि कठोर वचनों से कलावती की निंदा करने लगी। और तलवार से कडों से विभूषित दोनों हाथों को काट दिये। अहो! निरपराधी को भी यह कर्मविपाक दंड करता है! पश्चात् वे वहाँ से चले गये। ___कलावती सोच रही थी। रावण ने सीता का अपहरण किया। सीता ने वचन से अगम्य दुःख प्राप्त किया। नल ने निर्मल चरित्रवाली अपनी पत्नी दमयंती को वन में त्याग दी। द्रौपदी ने कर्म से उत्पन्न वन के कष्टों को खुद के शरीर से सहन किये। गांधारी ने भी अपने पुत्रों का दुःसह्य शोक प्राप्त किया। महासतीयों ने नित्य बड़ी आपदाएँ सहन की है। उससे यह निश्चय होता है कि पूर्व में बांधे कर्म को भोगे बिना कभी क्षय नहीं होते है। हे पिता! हे माता! इत्यादि बोलती हुई कलावती भूतल पर लोट गयी और ऊँचे स्वर में विलाप करने लगी। भाग्य! तू निर्दय बनकर अचिंतनीय खुद के कर्म का यह भयंकर दुःख रूपी फल क्यों दे रहा है? आर्यपुत्र! आपने भी बिना विचारे यह कार्य किया है। योग्यअयोग्य का विचार करने में समर्थ महापुरुषों को ऐसा करना उचित नहीं है। प्रिय!

Loading...

Page Navigation
1 ... 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 ... 136