Book Title: Pruthvichandra Gunsagar Charitra
Author(s): Raivatchandravijay
Publisher: Padmashree Marketing

View full book text
Previous | Next

Page 10
________________ आपको वरने के लिए आदर सहित कलावती को भेजा है। दत्त भी उसके साथ ही चला होगा, किन्तु अपने स्वामी को निवेदन करने के लिए यह पहले इधर आया है। दत्त ने कहा - अहो! मतिसार मन्त्री की आश्चर्यकारी बुद्धि है, जिसने बिन सुने और बिन देखे ही वस्तु को साक्षात् कर दी है। यह सब सुनकर सभी सभाजन आनंदित हुए। तब राजा ने उनको आदेश दिया - सदस्यों! प्रकट प्रयत्नवाले तुम सब, अब जो उचित कार्य है, वह करो! इसी बीच उत्तम परिवार से युक्त, जयसेनकुमार भी वहाँ आ गया और उसे सुंदर महल में आश्रयस्थान दिया गया। दिन की शेष रही रात्रि को वहाँ बीताकर, कामदेव के सदृश कुमार प्रातःकाल में राजसभा में गया। कुमार ने राजा को देखकर प्रणाम किया और भेंट रखी। शंखराजा ने कुमार से आलिंगन किया और स्वागत वचन कहा। तब कुमार के वरांग नामक मंत्री ने कहा - राजन्! हमारे स्वामी के आगे, दत्त ने इस प्रकार आपके गुणों का वर्णन किया था, जिसे सुनकर आपके गुणों पर रागी बने हमारे राजा ने कलावती के विवाह के लिए यहाँ भेजा है। आपके सिवाय इसका मन कहीं पर भी नहीं बहल रहा है। इसलिए प्रमोद धारणकर इसके हाथ को अपने हाथ से ग्रहण करें। इसने अपनी माता का भी कभी अप्रिय नहीं देखा है। उससे राजन्! आप अत्यन्त प्रेमपूर्वक यथोचित व्यवहार करें। सुंदर सामग्री प्राप्तकर हाथी, विंध्य पर्वत को याद नहीं करता है, वैसे ही कलावती भी अपने पिता के घर को याद न करे। तब श्री शंखराजा ने कहा-अहो! विजयराजा का चित्त विचित्र है, जो हमारे गुणों से भी रागी हो गया है। पिता के स्वर्गवास होने पर, बालक होते हुए भी मैंने राजपद प्राप्त किया है। इतने मात्र से क्या हम गुणीजनों में अग्रगणनीय बन गये? गुण रूपी समुद्र इस विजयराजा के वचन मुझे पालन करने चाहिए, इस प्रकार शंख राजा ने कुमार से कहा। निश्चित दिन के आने पर, सुंदर गीत-गान आदि आडंबर पूर्वक कुमार ने वर-वधू का विवाह कराया। जयसेनकुमार ने करमोचन के समय हाथी, घोड़े, रथ, स्वर्णादि दिये और कितने ही दिन पर्यंत वहाँ रुका। पश्चात् गद्-गद् सहित कुमार ने शंखराजा से वापिस लौटने की आज्ञा माँगी। राजा के हाँ कहने पर अनुक्रम से कुमार देवशालनगर पहुंचा। कलावती की कला कौई अद्वितीय ही मालूम पड़ रही थी। उसने अपने गुणों से विशाल भी राजा के मन को काबू में कर लिया था। अन्य दिन सुखपूर्वक निद्राधीन बनी कलावती ने रात के समय, चंदन से लेप किये गये, क्षीरसमुद्र के पानी से भरा हुआ, कमल से ढंका और अपने उत्संग में रहा स्वर्णकलश को स्वप्न में देखा। तब हिरण के समान नेत्रवाली वह कलावती जाग गयी। प्रातः समय उसने यह बात राजा से निवेदन की। राजा ने पुत्र प्राप्ति की बात कही। रत्न

Loading...

Page Navigation
1 ... 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 ... 136