Book Title: Pruthvichandra Gunsagar Charitra
Author(s): Raivatchandravijay
Publisher: Padmashree Marketing

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Page 8
________________ समीप की भूमि पर मृत घोड़े को पड़ा देखा और उसके पास ही सर्वांग सुंदर, भान रहित, मूर्छा से आँख मींचे एक पुरुष को देखा। उसकी मूर्छा दूर करने के लिए ठंडा पानी छांटा। क्रमशः वह होश में आया। मैंने सुंदर पक्वान से उसे भोजन कराया। बाद में स्वस्थ शरीरवाले उससे मैंने मधुरवाणी में पूछा - हे सुंदर आकृतिवाले कुमार! तुम किस स्थान से आये हो? और इस जंगल में अकेले ऐसी दशा कैसे प्राप्त की? उसने कहा - यह भविष्य की कोई प्रतिक्रिया नहीं है। क्योंकि मैं देवनन्दी नामक देश से, घोड़े के द्वारा अपहरण करने से यहाँ आया हूँ। आपने प्राणदान देकर मुझ पर उपकार किया है। भद्र! आप भी बतलाये, आप कहाँ से आये हैं और कहाँ जायेंगे? दत्त ने भी कहा - मैं शंखपुर से यहाँ आया हूँ और अब तुम्हारे देश के भूषण देवशालनगर जानेवाला हूँ। हम दोनों का सार्थ एक हुआ है, उससे शीघ्र ही घोड़े पर चढ़ो। हम दोनों इस भयंकर अटवी को पारकर अपने इच्छित स्थान पर पहुँचे, इस कथन को स्वीकार कर हम दोनों वहाँ से, धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगे। जब हम दोनों अटवी को लांघकर सार्थ के साथ मिले, तब सामने खड़ी बड़ी सेना को देखी। घबराये सभी सार्थ के सुभट शस्त्र आदि सज्जकर तैयार हुए और युद्ध के लिए आगे आये। उतने में ही डरो मत, इस प्रकार कहते हुए कोई घुड़सवार आगे आया। उसने जयसेनकुमार को पहचानकर आनंद प्राप्त किया। इस घटना को जानकर, वहाँ विजयराजा आया। कुमार ने विजयराजा को नमस्कार किया। राजा ने कुमार को गाढ़ आलिंगनकर बनाव के बारे में पूछा। कुमार ने भी अपनी सत्य हकीकत कह सुनायी। और कहने लगा- पिताजी! यह निःस्वार्थ बन्धु है। यह मुझे प्राण देनेवाला बन्धु है, इस प्रकार कहकर कुमार ने मुझे राजा को दिखलाया। विजयी विजयराजा ने भी मुझे आलिंगन किया। मैं देवशालनगर में आया और वहाँ इस प्रकार सुखपूर्वक रहने लगा जिससे कि मुझे माता-पिता आदि सब विस्मृत हो गये। विजयराजा की श्रीदेवी की कुक्षि से उत्पन्न और जयसेनकुमार की छोटी बहन कलावती नामक कन्या थी। सुंदर रूपवाली वह कन्या, विद्याओं को सीखकर क्रम से यौवन अवस्था में आई है। पिता ने उसके अनुरूप वर को कहीं पर भी नहीं देखा। विजयराजा ने मुझे आदेश दिया - वत्स! मेरी पुत्री के लिए उचित वर का संपादनकर, मुझे शीघ्र ही चिन्ता समुद्र से बाहर निकालो। वैसे ही करूँगा, इस प्रकार स्वीकारकर, उसकी छवि को शीघ्र ही चित्रपट पर लिखवायी और अब मैं उस कन्या के लिए इस नगर में आया हूँ। राजन्! मैं मानता हूँ कि यह कन्या आपके ही उचित है। यहाँ आप ही प्रमाण है। इसके बाद अधिक क्या कहूँ? तभी मन्त्री आदि ने भी आनंद व्यक्त किया। इसी बीच समयज्ञ ज्योतिष ने कहा

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