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तो उसे तुच्छकार/दुत्कार के उसकी निंदा करे या तिरस्कार करे यह जरा भी योग्य बात नहीं है। मैं अच्छी से अच्छी क्रिया करूं तो दूसरे क्यों न करें? दूसरों को भी करनी चाहिए! दूसरे क्रिया में कितनी घोलमाल करते है? मैं ही बराबर शुद्ध क्रिया करता हूँ। ऐसी वृत्ति आदमी को निंदा करने के लिए प्रेरती है। ऐसे लोगों को समझना चाहिए कि मैं भी पहले से ऐसी शुद्ध क्रिया करता था? धीरे-धीरे ही सब सीखा हूँ न, और मेरी क्रिया शुद्ध ही है ऐसा किसने कहा केवल ज्ञानी की दुष्टि में कैसी होगी। किसको पता? मैं खुद ही खुद को सर्टिफिकेट दे दूं तो कैसे चलेगा? दूसरों की क्रिया बाहृय दृष्टि से शायद हीन हो परन्तु केवली की दृष्टि से पूर्ण हो सकती है। मेरी अपूर्ण नजर सर्वत्र अपूर्ण ही देखती है। कमी से भरी नजर सब जगह कमी ही देखती है, ढूंढती है। मुझे दुसरी जगह कमी दिखती है, उस का अर्थ ये है कि मैं कमी से भरा हूँ। केवल ज्ञानि सब के सारे ही दोष जानते है, फिर भी कभी कहते नहीं है, मैं नही जानता और नहीं देखता फिर भी बक-बक करता हूँ। मैं जगत को अपूर्ण रूप में देखता हूँ, मुझे दूसरे अपूर्ण दिखते हैं वह मेरी ही अपूर्णता की निशानी है। ऐसी विचारधारा से व्यक्ति निंदा और क्रिया के अजीर्ण से बच सकता है। अच्छा! यह बात तो ठीक है कि ऐसी विचारधारा से हम निंदा करने से बच सकते हैं। परन्तू दूसरा कोई हमारी निंदा करता हो तो क्या करना? उस निंदा में कोई सच्चाई हो तो भी ठीक पर केवल कीचड़ उछालने की ही नीयत हो तो क्या करना? वह हमारे सामने कीचड़ उछाले तो क्या हमें भी उसके सामने कीचड़ उछालना? जैसे के साथ तैसे वाला सिद्धान्त अपनाना? या फिर अपना संतुलन खो बैठना? निंदक तो महा उपकारी है। कबीर कहते हैं- निंदक दूर न कीजिए, दीजे आदरमान,
निरमल तन मन सब करें, बकि बकि आनहिं आन। अपनी निंदा हो रही हो तो नाराज होने की जरूरत नहीं है किंतु खुश होने की जरूरत है। व्यक्ति किसी नगण्य आदमी की निंदा नहीं करता हैं। आपके चारों तरफ निंदा हो रही हो तो समझ लेना कि आप में कोई पात्रता कोई विशेषता आई है, आपकी निंदा प्रगति की सूचक है। आपकी प्रगति ने
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