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प्रवचनसार का सार उत्पन्न किया है कि जो अनंतकाल तक कभी नष्ट नहीं होगा; ऐसा अनंतसुख उत्पन्न किया है जो अनंतकाल में भी कभी नष्ट नहीं होगा। भंगविहिणो ही भवो अर्थात् विनाश रहित उत्पाद का यह अर्थ है।
आपने राग का ऐसा नाश किया कि अनंतकाल में कभी भी पुनः उसका उत्पाद नहीं होगा। फिर भी, हे भगवन! ध्रौव्य, विनाश और उत्पाद का समवाय आपके अंदर विद्यमान है।
देखो ! इस लौकिकसुख की क्या स्थिति है ? श्रीकृष्ण के वियोग से त्रस्त राधा या गोपियाँ श्रीकृष्ण से कहती हैं, 'हे कृष्ण ! जब आप मिलते हो तब भी जैसा मिलने का आनंद लेना चाहिए, वैसा आनंद हम नहीं ले पाते; क्योंकि आपके वियोग की आशंका से मन दुःखी बना रहता है। आप आने के बाद तुरंत यह कह देते हैं कि मैं परसो जाऊँगा । इसप्रकार हम वियोग में तो वियोग का दुःख भोगते ही हैं; लेकिन संयोग में भी वियोग की आशंका से वियोग का ही दुःख भोगते हैं। हमें सुख तो कभी मिला ही नहीं है; न संयोग के काल में और न ही वियोग के काल में ।
यदि वियोग में दुःख है तो संयोग में नियम से सुख होना चाहिए; परन्तु यह संसारसुख ऐसा है कि प्रथम तो इस संसार में सुख है ही नहीं और दूसरे वियोग के काल में हम इसके बिना दुःखी हैं और जब इसका संयोग होता है तो एक क्षण का भी विश्वास नहीं है कि यह कब तक रहेगा ? इसलिए मिलन के काल में भी हम इसका आनंद नहीं ले पाते हैं।
आचार्य यहाँ शुद्धोपयोग के फल की महिमा बता रहे हैं; इसीलिए केवलज्ञान व अनंतसुख की महिमा गा रहे हैं। इसे हम ज्ञानाधिकार का प्रारम्भ भी कह सकते हैं। ___ आचार्य कुन्दकुन्द ने प्रवचनसार को अधिकारों में विभक्त नहीं किया, उन्होंने तो गाथाओं को अविभक्त रखकर ही एक संपूर्ण प्रवचनसार की रचना की है। अमृतचन्द्राचार्य एवं जयसेनाचार्य ने ही इसे अधिकारों में विभाजित किया है। यही कारण है कि इसमें ज्ञान व सुख की चर्चा
दूसरा प्रवचन दोनों अधिकारों में चलती रहती है।
शुद्धोपयोगाधिकार की अन्तिम गाथा में वे कहते हैं कि केवली भगवान के देहगत सुख-दु:ख नहीं हैं। गाथा इसप्रकार है -
सोक्खं वा पुण दुक्खं, केवलणाणिस्स णत्थि देहगदं। जम्हा अदिदियत्तं, जादं तम्हा दु तं णेयं ।।२०।।
(हरिगीत) अतीन्द्रिय हो गये हैं जिन स्वयंभू बस इसलिए।
केवली के देहगत सुख-दु:ख नहीं परमार्थ से ।।२०।। वे केवली भगवान अतीन्द्रियरूप से उत्पन्न हुए हैं, इसलिए उनके शरीर सम्बन्धी सुख अथवा दुःख नहीं है - ऐसा जानना चाहिए।
केवलज्ञानी का सुख देहगत नहीं है, शारीरिक नहीं है अर्थात् वे विषयातीत हैं, उन्हें पंचेन्द्रियजन्य सुख नहीं है; उनका सुख देहातीत है, आत्मोत्पन्न है। यह पंचेन्द्रियाँ देह के अंग हैं एवं केवलज्ञानी का सुख अतीन्द्रिय है। उनका ज्ञान भी अतीन्द्रिय ही है।
यहाँ तक शुद्धोपयोगाधिकार की बात चल रही है।
अब ज्ञानाधिकार आरंभ होता है, जो २१वीं गाथा से ५२वीं गाथा तक चलेगा। इसमें आचार्य केवलज्ञान की महिमा एवं सर्वज्ञता का स्वरूप बताएँगे । ज्ञानाधिकार की इन ३२ गाथाओं में प्रवचनसार का वास्तविक मर्म छिपा है। ___ उत्थानिका में ही आचार्य कहते हैं कि अब हम ज्ञानप्रपंच आरंभ करते हैं। यहाँ प्रयुक्त प्रपंच शब्द विस्तार के अर्थ में है।
आजकल प्रपञ्च शब्द के अर्थ को सही अर्थ में कोई नहीं समझता। यदि यहाँ गुणस्थानों की गहरी-गहरी चर्चा प्रारंभ हो जाय तो तुरंत कोई न कोई कहेगा कि आप कहाँ प्रपञ्च में पड़ गए।
तो हम नाराज होकर कहने लगेंगे कि क्या जिनवाणी की गहराई से चर्चा करना प्रपञ्च है, हमारी इस जिनवाणी की चर्चा को आप प्रपञ्च
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