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दूसरा प्रवचन
प्रवचनसार का सार नहीं बनाया है।
जैसे कहा जाता है कि - जंगल में सिंह को राजतिलक किसने किया ? 'मृगेन्द्रस्य मृगेन्द्रत्वं वितीर्ण: केन कानने' क्षत्रचूड़ामणि के इस वाक्य से स्पष्ट है कि मृगेन्द्र के लिए जंगल का आधिपत्य किसी ने सौंपा नहीं है, उसने उसे अपने पुरुषार्थ से प्राप्त किया है। अपने पुरुषार्थ से उसने ऐसा आतंक पैदा कर दिया कि एक-एक जानवर उसकी आवाज सुनकर भयभीत हो जाता है। यही कारण है कि उसे जंगल का स्वयंभू राजा कहा जाता है।
ऐसे ही इस आत्मा ने शुद्धोपयोग के द्वारा स्वयं अपने आत्मा की आराधना कर स्वयं ही अतीन्द्रिय सुख व अतीन्द्रिय अनंतज्ञान अर्थात् केवलज्ञान की प्राप्ति की है; इसलिए यह आत्मा स्वयंभू है।
इस स्वयंभूवाली गाथा की चर्चा सर्वाधिक होती है; क्योंकि इसमें यह कहा गया है कि भगवान आत्मा का जो निर्मल परिणमन है अथवा उन्होंने जो अनंतसुख की प्राप्ति की है, अतीन्द्रियज्ञान को प्राप्त किया है; उसकी प्राप्ति किसी दूसरे के आश्रय से नहीं होती, किसी दूसरे की कृपा से नहीं होती, दूसरे के आशीर्वाद से नहीं होती; उसमें पर के सहयोग की रंचमात्र भी आवश्यकता नहीं है।
सम्यग्दर्शन की प्राप्ति तो देशनालब्धि के बिना नहीं होती - ऐसी स्थिति में यह कैसे कहा जा सकता है ?
आचार्य कहते हैं कि सम्यग्दर्शनादि जिसे प्राप्त होंगे; उसके पूर्व उन्हें देशनालब्धि अवश्य प्राप्त होगी। सम्यग्दर्शनादि देशनालब्धि के पराधीन नहीं है, देशनालब्धि तो सम्यग्दर्शनादि प्राप्ति के अंतर्गत आनेवाली प्रक्रिया है । वह प्रक्रिया कैसे सम्पन्न होगी? ऐसा प्रश्न हो सकता है; परन्तु इससे पराधीनता उपजती है - यह सोचना ठीक नहीं है।
केवलज्ञान का कर्ता कौन है ? आत्मा ।
यह केवलज्ञान किसका कर्म (कार्य) है? स्वयं आत्मा का। इस आत्मा ने किस साधन से यह केवलज्ञान प्राप्त किया ?
शुद्धोपयोग अर्थात् स्वयं के द्वारा ही इस आत्मा ने केवलज्ञान प्राप्त किया है।
यह प्राप्त केवलज्ञान इस आत्मा ने किसे दिया ? स्वयं को। यह केवलज्ञान कहाँ से आया? स्वयं में से ही आया है। किसके आधार से इस आत्मा ने केवलज्ञान प्राप्त किया है ? स्वयं के आधार से ही।
इसे ही स्वयंभू अर्थात् अभिन्न षट्कारक कहा जाता है। तात्पर्य यह है कि आत्मा ने, आत्मा को, आत्मा के द्वारा, आत्मा के लिए, आत्मा में से, आत्मा के आधार से केवलज्ञान प्राप्त किया है; अत: वह स्वयंभू है।
लोक में जो षट्कारक प्रसिद्ध हैं, वे भिन्न-भिन्न रूप में ही प्रसिद्ध हैं। कुम्हार कर्ता है; घड़ा कर्म है; चक्र, चीवर, दण्ड इत्यादि करण हैं; जल भरने के काम आता है, पानी पीने के लिए दिया जाता है, मिट्टी में से घड़ा आया है, वह घड़ा चक्र या जमीन के आधार से बनाया गया है; ये संप्रदान, अपादान एवं अधिकरण भी भिन्न-भिन्न ही प्रसिद्ध हैं; परन्तु यहाँ यह कहा जा रहा है कि षट्कारक पृथक्-पृथक् नहीं है क्योंकि निश्चय षट्कारक अपने में ही होते हैं, अभिन्न ही होते हैं।
भगवान कहते हैं कि जो सर्वज्ञता हमें प्राप्त हुई है, जो अनंत सुख हमें प्राप्त हुआ है; वह पर के सहयोग से प्राप्त नहीं हुआ है; अपितु स्वयं से ही प्राप्त हुआ है - यही इस गाथा का सार है।
पञ्चास्तिकाय की ६२वीं गाथा में यह सिद्ध किया है कि हमारी जो विकारी पर्यायें हैं; उसमें भी हम स्वयंभू हैं, वे स्वयं से ही उत्पन्न