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प्रवचनसार गाथा - ९८
विगत ९६-९७वीं गाथाओं में स्वरूपास्तित्व (अवान्तरसत्ता) और सादृश्यास्तित्व (महासत्ता) का स्वरूप स्पष्ट करने के उपरान्त अब इस ९८वीं गाथा में यह बताते हैं कि प्रत्येक द्रव्य सिद्ध और सत् स्वभाव से ही है । गाथा मूलतः इसप्रकार है -
दव्वं सहावसिद्धं सदिति जिणा तच्चदो समक्खादा । सिद्धं तध आगमदो णेच्छदि जो सो हि परसमओ ।। ९८ ।। ( हरिगीत )
स्वभाव से ही सिद्ध सत् जिन कहा आगमसिद्ध है ।
यह नहीं माने जीव जो वे परसमय पहिचानिये ।। ९८ ।। 'द्रव्य स्वभाव से सिद्ध और सत् है' - ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है। जो इसे नहीं मानता, वह वस्तुतः परसमय है।
गाथा में द्रव्य को स्वभाव से सत् और सिद्ध कहा है। इसमें 'सिद्ध' शब्द का अर्थ 'मुक्त' नहीं है; अपितु यह है कि प्रत्येक द्रव्य अपने स्वभाव से ही निर्मित है, वह किसी का निर्माण नहीं है। वह अनादि अनंत स्वतःसिद्ध अकृत्रिम पदार्थ है और उसका अस्तित्व भी स्वयं से ही है ।
इस गाथा का भाव तत्त्वप्रदीपिका टीका में आचार्य अमृतचन्द्र इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
"वस्तुत: बात यह है कि द्रव्यों से किसी अन्य द्रव्य का आरंभ (उत्पत्ति) नहीं होता; क्योंकि सभी द्रव्य अनादि अनंत होने से स्वभाव से ही सिद्ध हैं; क्योंकि अनादिनिधन पदार्थ अन्य साधन की अपेक्षा नहीं रखते । सभी पदार्थ मूल साधन के रूप में अपने गुण-पर्यायात्मक स्वभाव के कारण स्वयमेव सिद्ध हैं।
जो द्रव्यों से उत्पन्न होते हैं, वे अन्य द्रव्य (द्रव्यांतर) नहीं हैं; सदा
गाथा - ९८
नहीं होने से, कभी-कभी होने से वे तो द्विअणुक आदि व मनुष्यादि पर्यायें हैं; द्रव्य तो निरवधि त्रिकाली होने से उत्पन्न ही नहीं होते ।
द्रव्य जिसप्रकार स्वभाव से सिद्ध है; उसीप्रकार वह स्वभाव से ही सत् भी है; क्योंकि वह अपने सत्तास्वरूप स्वभाव से निष्पन्न है - ऐसा निश्चित करना चाहिए।
जिसके समवाय से द्रव्य सत् हो ऐसी अन्य द्रव्यरूप कोई सत्ता नहीं है। अब इसी बात को विशेष स्पष्ट करते हैं
पहली बात तो यह है कि डंडा और डंडी (डंडेवाला पुरुष ) में जिसप्रकार की युतसिद्धता (दो पदार्थों का जुड़ना) पाई जाती है; उसप्रकार की युतसिद्धता सत् द्रव्य और सत्ता गुण में नहीं पाई जाती; इसलिए सत्ता और द्रव्य में अर्थान्तरत्व नहीं है।
दूसरे सत्ता और द्रव्य में अयुतसिद्धता से भी अर्थान्तरत्व नहीं बनता । 'इसमें यह है' अर्थात् 'द्रव्य में सत्ता है' - ऐसी प्रतीति के कारण अर्थान्तरत्व बन जायेगा - यदि कोई यह कहे तो उससे पूछते हैं कि 'इसमें यह है' - ऐसी प्रतीति किसके आश्रय से होती है ?
यदि ऐसा कहा जाय कि भेद के आश्रय से होती है अर्थात् द्रव्य और सत्ता में भेद है, इसकारण होती है।
वह कौन - सा भेद है - प्रादेशिक या अताद्भाविक ? प्रादेशिक भेद तो है नहीं; क्योंकि युतसिद्धत्व पहले ही निरस्त कर दिया गया है। प्रदेशभेद तो युतसिद्धों में ही होता है।
यदि अताद्भाविक भेद कहा जाय तो ठीक ही है; क्योंकि ऐसा तो शास्त्र का भी वचन है । शास्त्रों में भी कहा है कि जो द्रव्य है, वह गुण नहीं है; परन्तु यह अताद्भाविक भेद एकान्त से 'इसमें यह है' - ऐसी प्रतीति का कारण नहीं है; क्योंकि वह अताद्भाविक भेद स्वयं ही उन्मग्न-निमग्न होता है।
जब पर्यायार्थिकनय से देखा जाय, तब ही 'यह शुक्ल वस्त्र है,