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प्रवचनसार अनुशीलन एक-एक ही हैं; अत: इनके मिलने का तो कोई प्रश्न नहीं है। ये आकाशादि द्रव्य भी परस्पर नहीं मिलते; भिन्न-भिन्न ही रहते हैं।
कालद्रव्य असंख्यात हैं; परन्तु वे भी परस्पर कभी मिलते नहीं हैं। न तो आपस में ही मिलते हैं और न अन्य द्रव्यों के साथ ही मिलते हैं। इसप्रकार धर्म, अधर्म, आकाश और काल - इन चार द्रव्यों में बंध का अभाव होने से इनमें बंधप्रक्रिया का प्रश्न ही नहीं उठता।
जीव अनन्त हैं; पर वे भी परस्पर नहीं मिलते । न तो वे परस्पर मिलते हैं और न धर्म, अधर्म, आकाश और काल से ही मिलते हैं। हाँ, पुद्गल के साथ उनका संबंध अवश्य होता है, बंध अवश्य होता है।
पुद्गल तो परस्पर बंधते ही हैं; स्कंध के रूप में परिणमित होते ही हैं। उनमें परस्पर और जीव के साथ उनके बंध की प्रक्रिया का क्या स्वरूप है - यही बात यहाँ समझाई जा रही है।
उक्त बंध होने में कारण उनमें होनेवाली स्निग्धता और रूक्षता है। यद्यपि जीवों में स्निग्धता और रूक्षता नहीं होती; तथापि राग-द्वेष होते हैं। जीव के साथ पौद्गलिक कर्मों का बंध और नोकर्मों का संबंध होने का कारण जीव की रागरूप स्निग्धता और द्वेषरूप रूक्षता ही है। बंध होने की उक्त संक्षिप्त प्रक्रिया यहाँ समझाई जा रही है।
विशेष जानने की बात यह है कि पुद्गलों के स्कन्धरूप परिणमन को जीव जानते तो हैं, पर उनमें कुछ करते नहीं हैं।
प्रवचनसार गाथा १६६-१६७ जो बात विगत गाथाओं में कही गई है; उसी बात को इन गाथाओं में और विशेष विस्तार से समझाते हैं तथा यह बताते हैं कि आत्मा उन पुद्गलपिण्डों का कर्ता नहीं है।
गाथायें मूलत: इसप्रकार हैं - णिद्धत्तणेण दुगुणो चदुगुणणिद्धेण बंधमणुभवदि। लुक्खेण वा तिगुणिदो अणु बज्झदि पंचगुणजुत्तो ।।१६६।। दुपदेसादी खंधा सुहुमा वा बादरा ससंठाणा। पुढविजलतेउवाऊ सगपरिणामेहिं जायंते ।।१६७।।
(हरिगीत) दो अंश चिकने अणु चिकने-रूक्ष हो यदि चार तो। हो बंध अथवा तीन एवं पाँच में भी बंध हो ।।१६६।। यदि बहुप्रदेशी कंध सूक्षम-थूल हों संस्थान में ।
तो भूजलादि रूप हों वे स्वयं के परिणमन से ।।१६७।। दो अंशोंवाला स्निग्ध परमाणु चार अंशोंवाले स्निग्ध या रूक्ष परमाणु के साथ बंधता है अथवा तीन अंशोंवाला रूक्ष परमाणु पाँच अंशोंवाले के साथ युक्त होकर बंधता है।
दो से लेकर अनन्त प्रदेशवाले संस्थानों (आकारों) सहित सूक्ष्म और स्थूल स्कंध पृथ्वी, जल, अग्नि और वायुरूप स्वयं के परिणामों से ही होते हैं।
इन गाथाओं का भाव तत्त्वप्रदीपिका टीका में आचार्य अमृतचन्द्र इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
“यथोक्त हेतुओं से परमाणुओं का पिण्डत्व निर्धारित करके यह जानना चाहिए कि दो और चार गुणवाले तथा तीन और पाँच गुणवाले दो स्निग्ध परमाणुओं के अथवा दो रूक्ष परमाणुओं के अथवा दो स्निग्ध
यद्यपि यह बात सत्य है कि सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप स्वभाव-पर्याय अनादि से नहीं है; तथापि अनादि-अनन्त सदा उपलब्ध ज्ञानस्वभाव के दर्शन का नाम सम्यग्दर्शन, जानने का नाम सम्यग्ज्ञान और उसी में जमने-रमने का नाम सम्यक्चारित्र है; अतः सदा उपलब्ध त्रिकाली ध्रव आत्मा के दर्शन भी स्वाधीन होने से सुलभ ही है। जबकि लौकिक संयोग पराधीन होने से सहज सुलभ नहीं, दुर्लभ हैं।
- बारह भावना : एक अनुशीलन, पृष्ठ१५६