Book Title: Pravachansara Anushilan Part 2
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 179
________________ ३५० प्रवचनसार अनुशीलन ( मनहरण ) रागादि विभावनि में जौन भावकरि जीव, देखे जाने इन्द्रिनि के विषय जे आये हैं। ताही भावनि सों तामें तदाकार होय रमै, तासों फेरी बँधै यही भावबंध भाये हैं ।। सोई भावबंध मानों चीकन रुखाई भयो, ताही के निमित्त सेती दर्वबंध गाये हैं। जामें आठ कर्मरूप कारमानवर्गना है, ऐसे सर्वज्ञ भनि वृन्द को बताये हैं ।।७८ ।। यह आत्मा इन्द्रिय विषयों को जिन रागादिभावों से देखता - जानता है; उन्हीं भावों में तदाकार होकर रमता है और बंधन को प्राप्त होता है। यही भावबंध है। यही भावबंध मानो राग-द्वेषरूप स्निग्धता और रूक्षता रूप है और इसी के निमित्त से द्रव्यबंध होता है। उस द्रव्यबंध में कार्माण वर्गणायें आठ प्रकार के कर्मरूप परिणमित होती हैं। वृन्दावन कवि कहते हैं कि सर्वज्ञ भगवान ने यह बात बताई है। पण्डित देवीदासजी इन गाथाओं का भाव एक-एक पद्य में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - ( कवित्त छन्द ) देखें जिहि प्रकार अरु जानें गुन सजीव उपयोग अनूप । सो पुनि विविधि पाइ इंद्रिनि के विषय इष्ट अनइष्ट स्वरूप ।। मोही तिन्हि विषै सुपुनि रागी दोषी होहि करि सु बहूतूप । तिनही राग दोष भावनि करि बूडत विषै बंध के कूप ।। १३६ ।। जीव अपने अनुपम उपयोग गुण से जिसप्रकार जानता-देखता है; उसीप्रकार वह अनेकविध इन्द्रिय विषयों को जानता-देखता हुआ इष्ट अथवा अनिष्ट भावों को करने लगता है तो वे इन्द्रिय विषय ही इष्ट अथवा अनिष्ट स्वरूप वाले कहे जाते हैं। मूढ जीव इन इन्द्रिय-विषयों गाथा - १७५-१७६ ३५१ में रागी -द्वेषी होता रहता है तथा इन्हीं राग-द्वेषादि भावों से विषयभोगों में डूबता हुआ बंध के कूप में पड़ जाता है। ( सवैया इकतीसा ) तेई राग भाव और दोष भाव मोह भाव याही लोक माँहि येसु तीन हु अधर्म सौं । आये जे सु इंद्रिनि विषै अनिष्ट इष्ट भाव तिन्हि कौं विलोकैं जानैं महा अति मर्मसों ।। देखि जानि तिनही स्वरूप होकैं परिनवै । रागादिक तिसही विभाव ताकै मर्म सौं । सोई भावबंध की निमित्त पाड़ बंधै जीव । ग्यानावरनी जु आदि दै सु अष्टकर्म सौं ।। १३७।। जीव के जो राग भाव, द्वेष भाव और मोह भाव हैं; वे तीनों लोक में अधर्म कहे जाते हैं । जीव को अपने पुण्य-पाप कर्म के उदय अनुसार जोजो इन्द्रिय विषय प्राप्त होते हैं, वह उनमें इष्ट या अनिष्ट भाव करके ही उन्हें जानता है और अत्यधिक मूढता या महाभ्रम के कारण उन्हें अच्छा-बुरा या सुख-दुःखरूप मानने लगता है तथा उन इष्ट-अनिष्ट पदार्थों को ही जानकर वह उनके ही स्वरूप होता हुआ अर्थात् इष्ट-अनिष्ट बुद्धि से उनमें सुख-दुःख मानता हुआ रागादिक विभावरूप परिणमन करता रहता है। उन्हीं विभाव परिणामों के मर्म से अर्थात् रागादि की मन्दतातीव्रता रूप ताकत से वह भावबंध स्वरूप होता है। इसप्रकार भावबंध का निमित्त पाकर ही भावबंध स्वरूप जीव ज्ञानावरणादि अष्टविध कर्मों से बंधता है। उक्त गाथाओं का भाव आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं “जीव स्वयं के स्वभाव को न जानता हुआ जगत के पदार्थों में इष्टअनिष्ट कल्पना करके उनमें अटक जाता है, यही भावबन्ध है तथा यही संसार है।

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