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प्रवचनसार गाथा १७५-१७६ इसप्रकार विगत गाथाओं में जीव और पौद्गलिक कर्मों के बंधन का स्वरूप सोदाहरण स्पष्ट करके अब भावबंध और द्रव्यबंध का स्वरूप स्पष्ट करते हैं। गाथायें मूलत: इसप्रकार हैं - उवओगमओ जीवो मुज्झदि रज्जेदि वा पदुस्सेदि। पप्पा विविधे विसये जो हि पुणो तेहिं संबंधो ।।१७५ ।। भावेण जेण जीवो पेच्छदि जाणादि आगदं विसये। रजदि तेणेव पुणो बज्झदि कम्म त्ति उवदेसो ॥१७६ ।।
(हरिगीत) प्राप्त कर उपयोगमय जिय विषय विविध प्रकार के। रुष-तुष्ट होकर मुग्ध होकर विविधविध बंधन करे ।।१७५।। जिस भाव से आगत विषय को देखे-जाने जीव यह।
उसी से अनुरक्त हो जिय विविधविध बंधन करे ।।१७६।। उपयोगमयी जो जीव विविध विषयों को प्राप्त करके मोह करता है, राग करता है और द्वेष करता है; वह जीव उन मोह-राग-द्वेष के द्वारा संबंधरूप होता है, बंधन को प्राप्त होता है। ___ जीव विषयागत पदार्थों को जिस भाव देखता-जानता है; उसी से उपरक्त होता है और उसी से कर्म बाँधता है - ऐसा उपदेश है।
इन गाथाओं के भाव को आचार्य अमतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
“सविकल्प (ज्ञान) और निर्विकल्प (दर्शन) प्रतिभासस्वरूप होने से यह आत्मा पूर्णतः उपयोगमय है।
काले, पीले या लाल पात्र में रखे हुये स्फटिक मणि के कालेपन, पीलेपन और ललाई से उपरक्त स्वभाववाला स्फटिकमणि जिसप्रकार स्वयं अकेला ही तद्रूप परिणमित होता है; उसीप्रकार यह आत्मा
गाथा-१७५-१७६ विविधाकार प्रतिभासित होनेवाले पदार्थों को प्राप्त करके मोह-राग-द्वेष करता है और मोह-राग-द्वेष के द्वारा उपरक्त (विकारी) आत्मस्वभाववाला होने से स्वयं अकेला ही बंधरूप है; क्योंकि मोह-राग-द्वेषभाव ही इसके द्वितीय है।
साकार (ज्ञान) और निराकार (दर्शन) प्रतिभासस्वरूप होने से यह आत्मा प्रतिभासित होने योग्य पदार्थ समूह को जिस मोह-रागद्वेषरूप भाव को देखता-जानता है, उसी से उपरक्त होता है। जो यह उपराग (विकार) है, वह स्निग्ध-रूक्षत्व स्थानीय भावबंध है और उसी से पौद्गलिक कर्म बंधते हैं। इसप्रकार यह भावबंध निमित्तिक द्रव्यबंध है।"
बंध के होने के लिए दो पदार्थों का होना जरूरी है; क्योंकि अकेले एक पदार्थ में बंध कैसे हो सकता है ? इसलिये यहाँ यह कहा गया है कि आत्मा के बंध में आत्मा एक और मोह-राग-द्वेष दूसरे - इसप्रकार आत्मा और मोह-राग-द्वेष इन दो में बंध हुआ है।
आचार्य जयसेन भी उक्त गाथाओं के भाव को तत्त्वप्रदीपिका टीका के समान ही स्पष्ट करते हैं।
कविवर वृन्दावनदासजी उक्त गाथाओं के भाव को एक-एक छन्द में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
(माधवी) उपयोगसरूप चिदातम सो, इन इन्द्रिनि की सतसंगति पाई। बभांति केइष्ट-अनिष्ट विर्षे, तिनको तित जोग मिलैं जब आई।। तब राग रु दोष विमोह विभावनि, सो तिनमें प्रनवै लपटाई। तिनही करि फेरि बँधेतहँ आपु, यों भाविकबंधकी रीति बताई।।७७॥
यह उपयोगस्वरूप चैतन्य आत्मा इन्द्रियों की संगति पाकर अनेक प्रकार के इष्ट-अनिष्ट पदार्थों में मोह-राग-द्वेषरूप परिणमित हो जाता है, उनसे लिपट जाता है और फिर उन मोह-राग-द्वेष भावों से ही बंधन को प्राप्त होता है। भावबंध की यही रीति आगम में बताई गयी है।