Book Title: Pravachansara Anushilan Part 2
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 202
________________ ३९६ प्रवचनसार अनुशीलन (दोहा) तारौं पुद्गल दरव ही, निज सुभाव तैं भीत । अति विचित्रगति कर्म को, कर्ता होत प्रतीत ।।९६।। इसलिए पुद्गलद्रव्य अपने स्वभाव से ही अति विचित्र गतिवाले कर्म का कर्ता होकर परिणमित होता है - ऐसा प्रतीत होता है। पण्डित देवीदासजी इन गाथाओं के भाव को एक-एक पद्य में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - (सवैया इकतीसा) सोई जीव द्रव्य या ही जग मांहिं परद्रव्य के निमित्त सौं असुद्ध परिनाम धरै है। सो असुद्ध चेतनामई सु परिनामनि कौ पाइ कैं निमित्त कर्म रूप अनुसरै है।। ग्यानावरनादि अष्ट भाव को सुपरिनये कर्म धूलि ग्रहिकैं सुबंध मांहिं परे है। काहु और काल के विर्षे सुरसुदैमैं आपु कर्म रज जाकौ आपहँसुत्याज करै है।।१४८।। वही संसारी जीवद्रव्य इस जगत में परद्रव्य के निमित्त से शुभाशुभभावरूप अशुद्धपरिणामों को धारण करता है और उन अशुद्ध चैतन्य परिणामों का निमित्त पाकर कर्मों का अनुसरण करता हुआ ज्ञानावरणादि अष्ट भावों रूप परिणमन करके कर्मधूलि को ग्रहण करके बंधन में पड़ जाता है। फिर अन्य काल में रस देकर वह कर्मरज अपने आप खिर जाती है, आत्मा के सम्पर्क का त्याग कर देती है। (गीतिका) जिहि काल यह चेतनि सुराग विरोध करि संजुक्त है। तिस ही समै सुभ असुभ भावनि के मझार सुधुक्त है।। तव ही सुग्यानावरन आदि सु अष्ट कर्मनि सौं रसै । जो कर्म धूलि त्रिजोग दरवाजे सु हो करिक धसे ।।१४९।। जिससमय यह आत्मा राग-द्वेष से युक्त होता है, उसीसमय गाथा-१८६-१८७ ३९७ शुभाशुभभावों में रच-पच जाता है और ज्ञानावरणादि आठ कर्मों में रस लेने लगता है और त्रियोग के दरवाजे से कर्म धूलि का ग्रहण कर उसमें धस जाता है। इन गाथाओं के भाव को आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "जिसप्रकार समुद्र की लहरें पवन के कारण नहीं उठती, स्वयं की योग्यता से उठती है; उसीप्रकार आत्मा की पर्याय में हुए मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय तथा योग के परिणामों को जीव स्वयं की योग्यता से करता है; कर्म, काल अथवा बाहर के संयोग उन परिणामों को नहीं कराते । वे परिणाम स्वयं को न जानने के कारण होते हैं। उस समय लक्ष्य यदि परपदार्थ अथवा कर्म के ऊपर हो, तो उनको निमित्त कहा जाता है। निगोद के जीव को तीव्र कर्म का उदय है; इसलिए विकार करता है - ऐसा नहीं। तथा संज्ञी जीव को कर्म का उदय मंद है; इसलिए धर्म का पुरुषार्थ करता है - ऐसा भी नहीं। वे परिणाम स्वयं के द्रव्य में से बहते हैं; पर के कारण नहीं होते। इसप्रकार पर का लक्ष्य करके आत्मा स्वयं विकार उत्पन्न करके मिथ्यात्व, राग-द्वेषादि का कर्ता होता है। राग का निमित्त पाकर पुद्गलकर्म स्वतंत्रपने बंधते हैं। जीव जब रागादिरूप परिणाम करता है, तब नवीन कर्म परमाणु उन परिणामों का निमित्त पाकर आत्मा के एकक्षेत्र में बंधते हैं। आत्मा जिस-जिस प्रकार के विकारी परिणाम करता है, उस-उस प्रकार के कर्म आते हैं। जब तीव्र अनुभाग वाले परिणाम करता है, तब तीव्र रसवाले कर्म बंधते हैं और जब मंद अनुभाग वाले परिणाम करता है, तब मंद रसवाले कर्म बंधते हैं। तथा जितने प्रमाण में परिणाम करता है, उतने प्रमाण में कर्म बंधते हैं। १. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ-३६१

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