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प्रवचनसार गाथा २०० विगत गाथा में सिद्ध भगवान और मोक्षमार्ग को नमस्कार करके एक प्रकार से ज्ञेयतत्त्व प्रज्ञापन महाधिकार का अन्तमंगल कर दिया है।
अब इस गाथा में आचार्यदेव ५वी गाथा में की गई प्रतिज्ञा के अनुसार निर्ममत्व में स्थित होकर ममता के त्याग का संकल्प करते हैं। गाथा मूलत: इसप्रकार है - तम्हा तह जाणित्ता अप्पाणं जाणगं सभावेण । परिवजामि ममत्तिं उवट्ठिदो णिम्ममत्तम्हि ।।२००।।
(हरिगीत ) इसलिए इस विधि आतमा ज्ञायकस्वभावी जानकर ।
निर्ममत्व में थित मैं सदा ही भाव ममता त्याग कर ।।२००।। शुद्धात्मा में प्रवृत्ति के द्वारा मोक्ष प्राप्त होता है; इसकारण मैं आत्मा को स्वभाव से ज्ञायक जानकर निर्ममत्व में स्थित रहता हुआ ममता का परित्याग करता हूँ।
इस गाथा के भाव को आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
“मैं यह मोक्षाधिकारी, ज्ञायकस्वभावी आत्मतत्त्व के परिज्ञानपूर्वक, ममत्व की त्यागरूप और निर्ममत्व के ग्रहणरूप विधि के द्वारा सर्व आरंभ (उद्यम) से शुद्धात्मा में प्रवृत्त होता हूँ; क्योंकि अन्य कृत्य का अभाव है।
अब इसी बात को विशेष स्पष्ट करते हैं
प्रथम तो मैं स्वभाव से ज्ञायक ही हूँ। केवल ज्ञायक होने से मेरा विश्व के समस्त पदार्थों के साथ भी सहज ज्ञेय-ज्ञायक लक्षण संबंध ही है; किन्तु स्व-स्वामि लक्षणादि संबंध नहीं हैं; इसलिए मेरा किसी के प्रति ममत्व नहीं है, मैं तो सर्वत्र निर्ममत्व ही हूँ।
गाथा-२००
४५५ एक ज्ञायक भाव का सर्व ज्ञेयों को जानने का स्वभाव होने से क्रमश: प्रवर्तमान अनन्त भूत, वर्तमान और भावी विचित्र पर्यायसमूहवाले अगाध स्वभाव और गंभीर ऐसे समस्त द्रव्यमात्र को; मानो वे द्रव्य ज्ञायक में उत्कीर्ण हो गये हों, चित्रित हो गये हों, भीतर घुस गये हों; कीलित हो गये हों, डूब गये हों, समा गये हों और प्रतिबिम्बित हुए हों; इसप्रकार एक क्षण में ही जो शुद्धात्मा प्रत्यक्ष करता है, ज्ञेय-ज्ञायक संबंध की अनिवार्यता के कारण ज्ञेय-ज्ञायक को भिन्न करना अशक्य होने से विश्वरूपता को प्राप्त होने पर भी जो शुद्धात्मा सहज अनंतशक्तिवाले ज्ञायकस्वभाव के द्वारा एकरूपता को नहीं छोड़ता; जो अनादि संसार से इसी स्थिति में ज्ञायकभावरूप ही रहा है और जो मोह के द्वारा दूसरे रूप में जाना-माना जाता रहा है; उस शुद्धात्मा को, यह मैं मोह को उखाड़ फेंककर, अतिनिष्कम्प रहता हुआ जैसा का तैसा ही प्राप्त करता हूँ।
इसप्रकार दर्शनविशुद्धिमूलक समस्त ज्ञान में उपयुक्तता के कारण अत्यन्त अव्याबाध (निर्विघ्न) लीनता होने से साधु होने पर भी साक्षात् सिद्धभूत - ऐसे इस आत्मा को तथा सिद्धभूत परमात्माओं को, उसी में एकपरायणतारूप भाव नमस्कार सदा ही स्वयमेव हो।"
इस गाथा का भाव आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में तत्त्वप्रदीपिका के अनुसार ही स्पष्ट करते हैं।
कविवर पण्डित वृन्दावनदासजी इस गाथा के भाव को ३ मनहरण छन्दों में इसप्रकार प्रस्तुत करते हैं -
(मनहरण) तातें जैसे तीरथेश आदि निजरूप जानि,
शुद्ध सरधान ज्ञान आचरन कीना है। कुन्दकुन्द स्वामी कहैं ताही परकार हम,
ज्ञायक सुभावकरि आपै आपचीना है ।। सर्व परवस्तु सों ममत्वबुद्धि त्यागकरि,
निर्ममत्व भाव में सु विसराम लीना है।