Book Title: Pravachansara Anushilan Part 2
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 230
________________ ४५२ प्रवचनसार अनुशीलन पण्डित देवीदासजी इस गाथा का भाव एक पद्य में इसप्रकार प्रस्तुत करते हैं - (सवैया इकतीसा) सम्यक् दरस ग्यान चरन प्रवर्त्ति सुद्ध आत्मा स्वरूप मोख मारग बतायौ है। सामान्य सु केवली कहेसु और तीर्थकर जसु मुनिजेसुमुक्ति गामी तिनि पायौ है ।। अँसे मोख केसुअभिलाषी जती कर्म हनि हूँ हैं सिद्ध जैसो मोख पंथ दरसायो है। सोई महामुनि कौं सु और मोखमारग कौं देवीदास हाथ जोरिक सुसीसुनायौ है ।।१६२।। अरहंत भगवान ने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र में प्रवृत्तिरूप शुद्धात्मस्वरूप को मोक्षमार्ग बताया है। जो मुक्ति गये हैं - ऐसे सामान्य केवली और तीर्थंकर केवली और जो मुक्ति जानेवाले हैं - ऐसे मुनिराजों ने कर्म का नाश कर मुक्ति प्राप्त की है और उन्होंने ऐसा ही मोक्षमार्ग बताया है - ऐसे तीर्थंकरों व महामुनिराजों को और मोक्षमार्ग को देवीदास हाथ जोड़कर शीश नवाता है। आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "सभी केवली भगवन्तों, तीर्थंकरों तथा एक भवतारी संतों ने शुद्धात्मा में प्रवृत्ति की विधि से ही मोक्षमार्ग पाया और इसी विधि से सिद्ध पद की प्राप्ति की। ___ चौथे काल में यही विधि थी और अब इस पंचम काल में भी यही विधि है। पंचमकाल के लिए कोई दूसरी विधि नहीं है। महाविदेह क्षेत्र हो या भरत क्षेत्र या अन्य जो भी क्षेत्र हो सर्वत्र मोक्ष की विधि एक ही है। १. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ-४४६-४४७ २. वही, पृष्ठ-४४७ गाथा-१९९ ४५३ शुद्धात्मस्वभाव में वर्तते हुए सिद्ध भगवंतों तथा आत्मस्वभाव की श्रद्धा-ज्ञान-चारित्र रूप मोक्षमार्ग को मेरा नोआगमभाव नमस्कार हो। ___ यहाँ शुद्ध आत्मा भाव्य है - ध्येय है, ध्यान करने योग्य है और मेरी पर्याय ध्यान करने वाली है, भावक है - ऐसे भाव्य-भावक का भेद अस्त हो जाता है। शुद्ध आत्मा वंद्य है और मैं वंदन करने वाला हूँ - शुद्ध आत्मा आराध्य है और मेरी पर्याय आराधना करने वाली है। ऐसा भेद अस्त हो गया है - इसप्रकार नोआगम भाव नमस्कार हो । आत्मा परिपूर्ण ज्ञायक स्वरूप है, उसके ज्ञानरूप परिणमना ही भाव नमस्कार है। आत्मा के उस ज्ञान को आगम भाव नमस्कार कहते हैं तथा इस ज्ञान सहित एकाग्रता रूप परिणमना नोआगम भाव नमस्कार है।" ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन महाधिकार की अंतमंगलाचरणरूप इस गाथा में मुक्तात्माओं और मुक्तिमार्ग को नमस्कार किया गया है। टीका में इस बात पर बल दिया गया है कि मुक्तिमार्ग शुद्धात्प्रवृत्तिरूप है और आजतक जो सिद्ध हुए हैं, हो रहे हैं और होंगे, वे सभी इसी मार्ग से मुक्त हुए हैं। मैं भी इसी मार्ग पर चलकर निर्विकल्परूप से सिद्ध भगवन्तों और मुक्तिमार्ग को नमस्कार कर रहा हूँ। तात्पर्य यह है कि मेरा यह नमस्कार भेदरूप द्रव्यनमस्कार नहीं है, अपितु अभेदरूप नोआगमभावनमस्कार है। १. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ-४४८ इस जगत में बुराइयों की तो कमी नहीं है, सर्वत्र कुछ न कुछ मिल ही जाती हैं; पर बुराइयों को न देखकर अच्छाइयों को देखने की आदत डालनी चाहिए। अच्छाइयों की चर्चा करने का अभ्यास करना चाहिए। अच्छाइयों की चर्चा करने से अच्छाइयाँ फैलती हैं और बुराइयों की चर्चा करने से बुराइयाँ फैलती हैं। अतः यदि हम चाहते हैं कि जगत में अच्छाइयाँ फैलें तो हमें अच्छाइयों को देखने-सुनने और सुनाने की आदत डालनी चाहिए। चर्चा तो वही अपेक्षित होती, जिससे कुछ अच्छा समझने को मिले, सीखने को मिले। -पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव, पृष्ठ-८७

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