Book Title: Pravachansara Anushilan Part 2
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 233
________________ प्रवचनसार अनुशीलन परद्रव्यों से ममत्वभाव त्याग दिया है और स्वरूप को पाकर उसमें निश्चल होकर एक वीतरागभावरूप परिणमित हो गये हैं। इस गाथा का भाव आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार प्रस्तुत करते हैं “आचार्य भगवान कहते हैं कि मैं मोक्षाधिकारी, ज्ञायकस्वभावी आत्मतत्त्व के परिज्ञानपूर्वक, ममत्व के त्याग और निर्ममत्व के ग्रहणरूपी विधि से सर्व उद्यमपूर्वक शुद्धात्मा में प्रवृत्त होता हूँ। देखो! यहाँ तत्त्व के परिज्ञानपूर्वक कहा है; क्योंकि तत्त्वों के सच्चे ज्ञान बिना ममत्व का त्याग और निर्ममत्व की शरण नहीं हो सकती।' आचार्य भगवान कहते हैं कि विश्व के समस्त पदार्थों के साथ मेरा ज्ञेय-ज्ञायक संबंध है, इसलिए मुझे उनसे कोई ममत्व नहीं, पूर्णत: निर्ममत्व है। कोई बिगड़े अथवा सुधरे मेरा उनसे कोई संबंध नहीं। शिष्य के धर्म पालने से मेरा कुछ सुधरता नहीं और धर्म न पालने से मेरा कुछ बिगड़ता नहीं। शिष्य कहता है कि - हे भगवन! आप तो धर्म के स्तंभ हो । आपके स्वर्ग पधारने के बाद इस शासन को कौन चलायेगा? आचार्य भगवान उत्तर देते हैं कि - मैंने तो पहले ही यह निर्णय कर लिया है कि शासन के साथ मेरा कोई संबंध नहीं, शासन पहले से ही है, हमारे आधार से नहीं है। जीवों को स्वयं की योग्यता से धर्म की प्राप्ति होती है। शासन रक्ष्य, मैं उसका रक्षक - ऐसा संबंध ही नहीं है। ज्ञेय-ज्ञायक संबंध मात्र है। अन्तर में चैतन्य का ज्ञायक स्वभाव कभी भी पररूप नहीं हुआ। घर के बाहर गड्डे के पानी में भैंस कीचड़ मचाती हो और कोई शिकायत करे कि भैंस कीचड़ मचा रही है तो घर का स्वामी कहता है कि न तो भैंस मेरी है और न ही पानी । इसका ध्यान रखना मेरा काम नहीं। १. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ-४५२ गाथा-२०० ४५९ उसीप्रकार परपदार्थ स्वयं के कारण नष्ट होते हैं, इससे मेरा कोई संबंध नहीं, कोई आचार्य भगवान से शिकायत करे कि पुस्तक फट गयी, मकान टूट गया, कोई शिष्य मर गया। आचार्य कहते हैं कि पुस्तक मेरी कब थी? कौन शिष्य? मेरा कोई शिष्य नहीं, पर के साथ मेरा कोई संबंध नहीं, पर के कारण मेरा कुछ बनता-बिगड़ता नहीं। यहाँ दृष्टिपूर्वक विशेष लीनता की बात है। आचार्य देव कहते हैं कि सर्वत्र निर्ममत्व ही वर्ते । ___ एक ज्ञायकभाव का सर्व ज्ञेयों को जानने का स्वभाव होने से क्रमप्रवर्तता हुआ, अनंत भूत-वर्तमान-भावी विचित्र पर्याय समूह वाला, अगाध स्वभाव और गंभीर ऐसे समस्त द्रव्य मात्र को जानता है। वे द्रव्य ज्ञायक में उत्कीर्ण हो गये हों, चित्रित हो गये हों, भीतर घुस गये हों, कीलित हो गये हों, डूब गये हों, समा गये हों, प्रतिबिम्बित हो गये हों। इन ज्ञेय पदार्थों को छद्मस्थ जीव भले ही एक के बाद एक ऐसा क्रम से जानते हों; परन्तु यह ज्ञायक का मूल स्वभाव नहीं है। समस्त द्रव्यों के भूत-वर्तमान-भावी काल की होनेवाली अनेक प्रकार की अनंत पर्यायों सहित एक समय में ही प्रत्यक्ष जानने का आत्मा का स्वभाव है। ज्ञायकस्वभाव दर्पण के समान द्रव्यों को जानता है। जिसप्रकार दर्पण में श्रीफल दिखता है, परन्तु श्रीफल दर्पण में नहीं दर्पण के बाहर है; उसीप्रकार चैतन्यमूर्ति रूपी दर्पण में भूत-वर्तमान-भावी अनंत पर्यायों वाला ज्ञेय जानने में आता होने पर भी ज्ञान में प्रविष्ट नहीं हुआ है, ज्ञान से बाहर है। जिसप्रकार दर्पण को देखने पर बाहर की सब वस्तुयें दिख जाती है; उसीप्रकार निज चैतन्य दर्पण को देखने पर समस्त ज्ञेय दिख जाते हैं। १. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ-४५९ २. वही, पृष्ठ-४६१ ३. वही, पृष्ठ-४६१ ४. वही, पृष्ठ-४६१

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