Book Title: Pravachansara Anushilan Part 2
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 238
________________ ४६८ गाथा पद्यानुवाद ४६९ प्रवचनसार अनुशीलन गुण से गुणान्तर परिणमें द्रव्य स्वयं सत्ता अपेक्षा। इसलिए गुणपर्याय ही हैं द्रव्य जिनवर ने कहा ।।१०४।। यदि द्रव्य न हो स्वयं सत् तो असत् होगा नियम से। किम होय सत्ता से पृथक् जब द्रव्य सत्ता है स्वयं ।।१०५।। जिनवीर के उपदेश में पृथक्त्व भिन्नप्रदेशता। अतभाव ही अन्यत्व है तो अतत् कैसे एक हों ।।१०६।। सत् द्रव्य सत् गुण और सत् पर्याय सत् विस्तार है। तदरूपता का अभाव ही तद्-अभाव अर अतद्भाव है ।।१०७।। द्रव्य वह गुण नहीं अर गुण द्रव्य ना अतद्भाव यह। सर्वथा जो अभाव है वह नहीं अतदभाव है।।१०८।। परिणाम द्रव्य स्वभाव जो वह अपृथक् सत्ता से सदा। स्वभाव में थित द्रव्य सत् जिनदेव का उपदेश यह ।।१०९।। पर्याय या गुण द्रव्य के बिन कभी भी होते नहीं। द्रव्य ही है भाव इससे द्रव्य सत्ता है स्वयं ।।११०।। पूर्वोक्त द्रव्यस्वभाव में उत्पाद सत् नयद्रव्य से। पर्यायनय से असत् का उत्पाद होता है सदा ।।१११।। परिणमित जिय नर देव हो या अन्य हो पर कभी भी। द्रव्यत्व को छोड़े नहीं तो अन्य होवे किसतरह ।।११२।। मनुज देव नहीं है अथवा देव मनुजादिक नहीं। ऐसी अवस्था में कहो कि अनन्य होवे किसतरह ।।११३।। द्रव्य से है अनन्य जिय पर्याय से अन-अन्य है। पर्याय तन्मय द्रव्य से तत्समय अत: अनन्य है ।।११४।। अपेक्षा से द्रव्य 'है' 'है नहीं' 'अनिर्वचनीय है'। 'है है नहीं' इसतरह ही अवशेष तीनों भंग हैं ।।११५।। पर्याय शाश्वत नहीं परन्तु है विभावस्वभाव तो। है अफल परमधरम परन्तु क्रिया अफल नहीं कही ।।११६।। नाम नामक कर्म जिय का पराभव कर जीव को। नर नारकी तिर्यंच सुर पर्याय में दाखिल करे ।।११७।। नाम नामक कर्म से पशु नरक सुर नर गति में।। स्वकर्म परिणत जीव को निजभाव उपलब्धि नहीं ।।११८।। उत्पाद-व्यय ना प्रतिक्षण उत्पादव्ययमय लोक में। अन-अन्य है उत्पाद-व्यय अर अभेद से हैं एक भी ।।११९।। स्वभाव से ही अवस्थित संसार में कोई नहीं। संसरण करते जीव की यह क्रिया ही संसार है ।।१२०।। कर्ममल से मलिन जिय पा कर्मयुत परिणाम को। कर्मबंधन में पड़े परिणाम ही बस कर्म है।।१२।। परिणाम आत्मा और वह ही कही जीवमयी क्रिया। वह क्रिया ही है कर्म जिय द्रवकर्म का कर्ता नहीं ।।१२२।। करम एवं करमफल अर ज्ञानमय यह चेतना। ये तीन इनके रूप में ही परिणमे यह आत्मा ।।१२३।। ज्ञान अर्थविकल्प जो जिय करे वह ही कर्म है।। अनेकविध वह कर्म है अर करमफल सुख-दुक्ख हैं ।।१२४।। ज्ञान कर्मरु कर्मफल परिणाम तीन प्रकार हैं। आत्मा परिणाममय परिणाम ही हैं आत्मा ।।१२५।। जो श्रमण निश्चय करे कर्ता करम कर्मरु कर्मफल। ही जीव ना पररूप हो शुद्धात्म उपलब्धि करे ।।१२६।। द्रव्यविशेषप्रज्ञापनाधिकार द्रव्य जीव अजीव हैं जिय चेतना उपयोगमय । पुद्गलादी अचेतन हैं अत:एव अजीव हैं ।।१२७।। आकाश में जो भाग पुद्गल जीव धर्म अधर्म से। अर काल से समृद्ध है वह लोक शेष अलोक है।।१२८।। जीव अर पुद्गलमयी इस लोक में परिणमन से। भेद से संघात से उत्पाद-व्यय-धूवभाव हों।।१२९।। जिन चिह्नों से द्रव ज्ञात हो रे जीव और अजीव में। वे मूर्त और अमूर्त गुण हैं अतद्भावी द्रव्य से ।।१३०।। इन्द्रियों से ग्राह्य बहुविधि मूर्त गुण पुद्गलमयी। अमूर्त हैं जो द्रव्य उनके गुण अमूर्त्तिक जानना ।।१३१।। सूक्ष्म से पृथ्वी तलक सब पुद्गलों में जो रहें। स्पर्श रस गंध वर्ण गुण अर शब्द सब पर्याय हैं।।१३२।।

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