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प्रवचनसार अनुशीलन इसप्रकार अब प्रवचनसार के ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन महाधिकार का समापन होने जा रहा है। महाधिकार के अन्त में तत्त्वप्रदीपिका टीका में आचार्य अमृतचन्द्र २ शालिनी और १ वसंततिलका इसप्रकार कुल ३ छन्द लिखते हैं; जो इसप्रकार हैं
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( शालिनी )
जैनं ज्ञानं ज्ञेयतत्त्वप्रणेतृ स्फीतं शब्दब्रह्म सम्यग्विगाह्य । संशुद्धात्मद्रव्यमात्रैकवृत्त्या नित्यं युक्तैः स्थीयतेऽस्माभिरेवम् ।। १० ।। ज्ञेयीकुर्वन्नञ्जसासीमविश्वं ज्ञानीकुर्वन् ज्ञेयमाक्रान्तभेदम् । आत्मीकुर्वन् ज्ञानमात्मान्यभासि स्फूर्जत्यात्मा ब्रह्म संपद्य सद्य: ।। ११ ।। ( दोहा )
ज्ञेयतत्त्व के ज्ञान के प्रतिपादक जो शब्द । उनमें डुबकी लगाकर निज में रहें अशब्द ।। १० ।। शुद्ध ब्रह्म को प्राप्त कर जग को कर अब ज्ञेय ।
स्वपरप्रकाशक ज्ञान ही एकमात्र श्रद्धेय ।।११।। इसप्रकार ज्ञेयतत्त्व को समझानेवाले शब्दब्रह्मरूप जैन तत्त्वज्ञान में भलीभांति अवगाहन करके हम मात्र शुद्धात्मद्रव्यरूप एक वृत्ति (परिणति) से सदा युक्त रहते हैं।
यह आत्मा ब्रह्म (परमात्मतत्त्व- सिद्धत्व) को शीघ्र प्राप्त करके असीम विश्व को शीघ्रता से एकसमय में ज्ञेयरूप करता हुआ, भेदों को प्राप्त ज्ञेयों को ज्ञानरूप करता हुआ और ज्ञान को आत्मारूप करता हुआ दैदीप्यमान हो रहा है।
उक्त छन्दों के भाव
स्वामीजी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
" इसप्रकार ज्ञेयतत्त्व को समझानेवाले सर्वज्ञ बिना और कोई नहीं है, वीतरागता प्रगट होने पर, सर्वज्ञता प्रगट हुई और दिव्यध्वनि में जो वस्तुतत्त्व का परिपूर्ण स्वरूप प्रगट हुआ, उसे शब्दब्रह्म कहते हैं। उस शब्दब्रह्म को समझाने के लिए कुन्दकुन्ददेव ने इस शास्त्र की रचना की है।
छहों द्रव्य स्वतंत्र है, प्रत्येक द्रव्य में अनंत गुण हैं। आत्मा ज्ञान
गाथा - २००
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दर्शन-चारित्र आदि अनंत गुणों का पिण्ड है । प्रतिसमय प्रत्येक द्रव्य की अवस्था बदलती है।
कर्मादि परपदार्थ ज्ञेय हैं, उनकी भी अपनी स्वतंत्र योग्यता है। कोई भी स्वज्ञेय - परज्ञेय में कुछ भी नहीं कर सकता। इसप्रकार यह आत्मा प्रत्येक रजकण से और अन्य आत्मा से भिन्न ही है। ऐसी स्वतंत्रता की बात ज्ञेयाधिकार में की है।
भगवान आत्मा परब्रह्म है और उसे बताने वाली वाणी शब्दब्रह्म है। यहाँ आचार्यदेव कहते हैं कि शब्दब्रह्म का सम्यक् अवगाहन करके हम मात्र शुद्धात्मा में ही लीन रहते हैं। कोई भी विकल्प मुझे शरणभूत नहीं है; स्व-ज्ञेय शुद्धात्मा ही एक शरणभूत है।
जो आत्मा का सच्चा ज्ञान करता है, वह केवलज्ञानदशा को प्राप्त करता है। आत्मा पर की क्रिया, पुण्य-पाप की क्रिया से रहित है - ऐसी श्रद्धापूर्वक चारित्रदशा होती है और चारित्र पूर्ण होते ही केवलज्ञानदशा प्राप्त होती है।"
उक्त छन्दों में आचार्य अमृतचन्द्रदेव कह रहे हैं कि मैं इस जिनप्रवचन के सारभूत प्रवचनसाररूप जिनवाणी में अवगाहन करके ज्ञेयतत्त्व को भलीभाँति समझकर निजात्मरमणतारूप परिणमित हो रहा हूँ। इसप्रकार मेरा यह आत्मा परमात्मतत्त्व को प्राप्त कर, सम्पूर्ण विश्व को ज्ञेय रूप करता हुआ, भेदों को प्राप्त ज्ञेयों को ज्ञानरूप करता हुआ, ज्ञान को आत्मरूप करता हुआ शोभायमान है।
इस महाधिकार के अन्त में आने वाले ३ छन्दों में से अन्तिम छन्द इसप्रकार है
( वसन्ततिलका) द्रव्यानुसारि चरणं चरणानुसारि द्रव्यं मिथो द्वयमिदं ननु सव्यपेक्षम् ।
१. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ ४६५
२. वही, पृष्ठ ४६६
४. वही, पृष्ठ ४६७
३. वही, पृष्ठ ४६६
५. वही, पृष्ठ ४६७