Book Title: Pravachansara Anushilan Part 2
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 234
________________ प्रवचनसार अनुशीलन सम्यग्ज्ञान का मूल दर्शनविशुद्धि है, दर्शनविशुद्धि के बिना सम्यग्दर्शन नहीं होता है। इसप्रकार ज्ञान के साथ दर्शनविशुद्धि होने से सीधे ज्ञानस्वभाव में अव्याबाध लीनता होती है। वर्तमान में मुनिदशा होने पर साक्षात् सिद्ध समान मेरे इस निजात्मा को तथा इसप्रकार सिद्धदशा को प्राप्त सिद्ध भगवन्तों को भाव नमस्कार सदैव हो । स्वयं भाव्यरूप से जो वस्तु है, उसमें एकाग्र होना - यह भावनमस्कार का लक्षण है। " ४६० इस गाथा और उसकी टीका में समागत भाव का सारांश यह है कि आत्मार्थी के लिए आत्मपरिज्ञानपूर्वक निर्ममत्व होकर शुद्धात्मा में प्रवृत्ति करने के अतिरिक्त अन्य कोई कार्य करनेयोग्य नहीं है। आचार्यदेव घोषणा कर रहे हैं कि मेरा समस्त परपदार्थों के साथ मात्र ज्ञेय - ज्ञायक संबंध ही है; इसके अतिरिक्त अन्य कोई संबंध नहीं । तात्पर्य यह है कि आत्मा का पर के साथ न तो तादात्म्य संबंध है, न स्व-स्वामी संबंध है, न लक्ष्य-लक्षण संबंध है, न गुरु-शिष्य संबंध है, न विशेषण - विशेष्य संबंध है, न गुण-गुणी संबंध है, न वाच्यवाचक संबंध है, न ग्रहण ग्राह्य संबंध है, न कर्ता-कर्म संबंध है, न आधार-आधेय संबंध है और न रक्ष्य-रक्षक संबंध है। इसप्रकार आत्मा पर से निर्ममत्व ही है। ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए आचार्यदेव कहते हैं कि ज्ञायकभाव का सर्वज्ञेयों को जानने का स्वभाव होने से समस्त द्रव्य अपने गुण और पर्यायों सहित ज्ञायकभाव में इसप्रकार ज्ञात होते हैं कि मानो वे ज्ञायक में उत्कीर्ण हो गये हों, चित्रित हो गये हों, भीतर घुस गये हों, कीलित हो गये हों, डूब गये हों, समा गये हों और प्रतिबिम्बित हो गये हों । इसप्रकार ज्ञेय - ज्ञायक संबंध की अनिवार्यता के कारण गहराई से संबंधित होने पर भी ज्ञायकभाव ज्ञेयों से भिन्न ही है, भिन्न ही रहता है। १. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ ४६४ गाथा - २०० ४६१ इसलिए मैं तो निज ज्ञायकभाव को जैसा उसका मूल स्वभाव है, वैसा ही प्राप्त करता हूँ। यद्यपि आचार्यदेव अभी साधु अवस्था में ही हैं; तथापि अपने आत्मा को सिद्धात्माओं के साथ स्थापित करते हैं और कहते हैं कि मेरा यह सिद्धात्माओं को अभेदरूप निर्विकल्प भावनमस्कार है। इसके बाद आचार्य जयसेन की टीका में तात्पर्यवृत्ति में एक गाथा ऐसी प्राप्त होती है, जो तत्त्वप्रदीपिका टीका में नहीं है। गाथा मूलतः इसप्रकार है - दंसणसंसुद्धाणं सम्मण्णाणोवजोगजुत्ताणं । अव्वाबाधरदाणं णमो णमो सिद्धसाहूणं ।। १४ । । ( हरिगीत ) सुशुद्धदर्शनज्ञानमय उपयोग अन्तरलीन जिन । बाधारहित सुखसहित साधुसिद्ध को शत्-शत् नमन ।। १४ ।। दर्शन से संशुद्ध, सम्यग्ज्ञानरूप उपयोग से सहित निर्बाधरूप से स्वरूपलीन सिद्ध व साधुओं को बारम्बार नमस्कार हो । आचार्य जयसेन की टीका में प्राप्त यह गाथा भी इस अधिकार की अन्तमंगलरूप गाथा है। आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में इस गाथा का भाव स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि ३ मूढता आदि २५ दोषों से रहित सम्यग्दर्शन से शुद्ध, संशय आदि दोषों से रहित सम्यग्ज्ञान से सहित, विकल्परहित स्वरूपलीनतारूप वीतरागचारित्र सहित, निराबाध अनंतसुख में लीन सिद्धों अर्थात् अरहंत-सिद्धों को और सिद्धदशा को साधनेवाले साधुओं अर्थात् आचार्यों, उपाध्यायों और साधुओं को मैं भक्तिपूर्वक बारम्बार नमस्कार करता हूँ । ध्यान रहे मूल गाथा में सिद्ध और साधुओं का ही उल्लेख हैं; पर टीका में सिद्ध में अरहंत और सिद्धों को तथा साधुओं में आचार्य, उपाध्याय और साधुओं को भी ले लिया गया है।

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