Book Title: Pravachansara Anushilan Part 2
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 228
________________ प्रवचनसार अनुशीलन परन्त अव्याबाध सुख प्रगट नहीं हआ है और योग गण संबंधी अशद्धता है। चार प्रतिजीवी गुणों की पर्याय में अशुद्धता है, ऊर्ध्वगमन स्वभाव भी शुद्धरूप से प्रगट नहीं हुआ है, अरहंत भगवान की आत्मा में इतनी कचास है और निमित्तरूप चार अघातिकर्म शेष हैं, स्वपर्याय की इतनी कचास (अपूर्णता) मिटाने के लिए अरहंत भगवान को छद्मस्थ की तरह कोई विकल्प/पुरुषार्थ नहीं करना पड़ता; आत्मानुभव में स्थित रहने से क्रम-क्रम से मलिनता समाप्त होकर सिद्धदशा प्रगट होती है; इसलिए एक आत्मा में अवस्थित रहने से भगवान को शुक्लध्यान कहा है।' सर्व आत्मप्रदेशों में परिपूर्ण आनंद और ज्ञान से भरे सर्वज्ञ भगवान का परमानंदरूप अपने निजात्मा में मात्र अपने रूप से संवेदन करनेवाले होने से, उन्हें परमानंद का ध्यान है; इसलिए वे परमसुख को ध्याते हैं।" उक्त गाथाओं और उनकी टीकाओं में अनेक युक्तियों से इस शंका का समाधान किया गया है कि अरहंत भगवान के न तो अभिलाषा है, न जिज्ञासा है और न किसी भी प्रकार का संदेह ही रहा है; क्योंकि वे वीतरागी और सर्वज्ञ हैं। वीतरागी होने से अभिलाषा नहीं है और सम्पूर्ण पदार्थों को प्रत्यक्ष जान लेने से जिज्ञासा और सन्देह नहीं हो सकते । इसप्रकार जब कोई कमी नहीं है तो वे ध्यान किसलिए करते हैं और किसका ध्यान करते हैं ? उक्त शंका का समाधान करते हुए कहा गया है कि वे सिद्धत्व की प्राप्ति के लिए परमसुख का ध्यान करते हैं। आचार्य जयसेन के अनुसार यह कथन उपचरित कथन है; क्योंकि अनंत अतीन्द्रिय सुख प्राप्त हो जाने से वस्तुतः उन्हें ध्यान होता ही नहीं है; परन्तु आगम में ऐसा कहा गया है कि तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में शुक्लध्यान के अन्तिम दो पाये जाते हैं। प्रवचनसार गाथा १९९ 'जब केवली भगवान को अभिलाषा, जिज्ञासा और सन्देह नहीं है तो फिर वे ध्यान किसलिए करते हैं और किसका करते हैं - यह प्रश्न और इसका उत्तर विगत गाथाओं में दिया गया है; अब इस गाथा में यह कहते हैं कि मोक्षमार्ग शुद्धात्मा की उपलब्धिरूप ही है। गाथा मूलत: इसप्रकार है - एवं जिणा जिणिंदा सिद्धा मग्गं समुट्ठिदा समणा। जादा णमोत्थु तेसिं तस्स य णिव्वाणमग्गस्स ।।१९९।। (हरिगीत) निर्वाण पाया इसी मग से श्रमण जिन जिनदेव ने । निर्वाण अर निर्वाणमग को नमन बारंबार हो ।।१९९।। जिन, जिनेन्द्र और श्रमण अर्थात् सामान्य केवली, तीर्थंकर केवली और मुनिगण पूर्वोक्त मार्ग में आरूढ होकर ही सिद्ध हुए हैं। उन्हें और उक्त निर्वाणमार्ग को नमस्कार हो। __आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इस गाथा का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "सभी सामान्य चरमशरीरी, चरमशरीरी तीर्थंकर और अचरमशरीरी मुमुक्षु यथोक्त शुद्धात्मप्रवृत्ति है लक्षण जिसका - ऐसी विधि से प्रवर्तमान मोक्षमार्ग को प्राप्त करके सिद्ध हुए हैं; किसी अन्य विधि से आजतक कोई भी सिद्ध नहीं हुआ। इससे निश्चित होता है कि यह एक ही मोक्षमार्ग है, अन्य कोई नहीं। अधिक प्रपंच (विस्तार) से क्या लाभ है ? उस शुद्धात्मतत्त्व में प्रवर्तित सिद्धों को तथा शुद्धात्मप्रवृत्तिरूप मोक्षमार्ग को, जिसमें भाव्य और भावक का विभाग अस्त हो गया है - ऐसा नोआगमभावनमस्कार १. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ-४४२ २. वही, पृष्ठ-४४५ हो।

Loading...

Page Navigation
1 ... 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241