Book Title: Pravachansara Anushilan Part 2
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 227
________________ प्रवचनसार अनुशीलन उत्तर - ज्ञानावरनादि सर्व बाधा सों विमुक्त होय, पायो है अबाध निज आतम धरम है। ज्ञान और सुख सरवंग सब आतमा के, जासों परिपूरित सो राजै अभरम है ।। इन्द्री सो रहित उतकिष्ट अतिइन्द्री सुख, ताही को एकाग्ररूप ध्यावत परम है। येही उपचार करि केवली के ध्यान कह्यौ, भेदज्ञानी जानै यह भेद को मरम है।।१२७।। ज्ञानावरणादि सभी कर्मों की बाधा से मुक्त होकर जिन्होंने अबाध आत्मधर्म प्राप्त किया है और जो आत्मा के सर्वांग में ज्ञान और सुख से भरे हुए शोभायमान हो रहे हैं, सभी प्रकार के भ्रमों से रहित हैं; उनको इन्द्रियों से रहित उत्कृष्ट अतीन्द्रिय सुख की प्राप्ति हुई है; इसलिए वे एकाग्र होकर उसी का ध्यान करते रहते हैं। यही उपचार करके केवली भगवान के ध्यान कहा है। इस मार्मिक रहस्य को भेदज्ञानी ही जानते हैं। (दोहा) अतिइन्द्री उतकिष्ट सुख, सहज अनाकुलरूप। ताही को एकाग्र निज, अनुभवते जिनभूप ।।१२८।। अनइच्छक बाधा रहित, सदा एकरस धार । यही ध्यान तिनके कह्यौ,नय उपचार आधार ।।१२९।। पुव्व कर्म की निरजरा, नूतन बांधै नाहिं। यही ध्यान को फल लखौ, वृन्दावन मनमाहिं ।।१३०।। जिनराज को अनाकुल, अतीन्द्रिय, उत्कृष्ट सुख सहज प्राप्त है; वे उसी का एकाग्र चित्त से अनुभव (ध्यान) करते हैं। इच्छाओं और बाधाओं से रहित एक अतीन्द्रिय सुख की एकरस धार उनके अन्तर में निरन्तर बहती रहती है। उपचार से यह कहा जाता है कि उनके यही ध्यान है। गाथा-१९७-१९८ ४४७ - वृन्दावन कवि मन में सोचते हैं कि पुराने कर्मों की निर्जरा और नये कर्मों का बंधन का अभाव - ध्यान का यही फल उन्हें प्राप्त है। पण्डित देवीदासजी इन गाथाओं का भाव कविवर वृन्दावनदासजी के समान ही करते हैं। आध्यात्मिसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इन गाथाओं का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "जगत के सामान्यजनों को मोह के निमित्त से और स्वयं की योग्यता से तृष्णा है; इसलिये उनको किसी न किसी पदार्थ की इच्छा रहती है तथा वे स्वयं की योग्यता के कारण और ज्ञानावरणरूप कर्म के निमित्त से सम्पूर्ण पदार्थों को तो जान नहीं सकते तथा जिनको जानते हैं, उन्हें भी सूक्ष्मता से नहीं जानते; इसलिए जो जानने में नहीं आ रहे, उन्हें जानने की जिज्ञासा होती है तथा अस्पष्टरूप से जाने हुए पदार्थों में शंका रहती है - ऐसा होने के कारण उन्हें अभिलाषा, जिज्ञासा और संदेहवाले पदार्थों का ध्यान होता है। परन्तु सर्वज्ञ भगवान को निमित्तरूप मोहनीय कर्म का अभाव होने से और स्वयं की योग्यता से वीतरागता है, इसलिए इच्छा नहीं है; सर्वज्ञदशा प्रगट है, इसकारण निमित्तरूप ज्ञानावरण कर्म नहीं है; इसलिये भगवान सर्व पदार्थों को अत्यन्त स्पष्टता से परिपूर्ण जानते हैं; अतः उन्हें किसी भी पदार्थ के प्रति अभिलाषा, जिज्ञासा अथवा संदेह नहीं है; तो फिर उनको किस पदार्थ का ध्यान हो सकता है? केवली भगवान के परिपूर्ण सिद्धदशा होने तक शुक्लध्यान होता है; क्योंकि वे अनाकुलरूप से एक आत्म विषय में अनुभवरूप से स्थित रहते हैं, ऐसा होने पर भी केवली भगवान अपूर्व और अनाकुल लक्षण परमसुख को ध्याते हैं और ऐसे आत्मस्थित रहने से सहज ज्ञान, आनन्द स्वभाव रूप सिद्धदशा की प्राप्ति हो जाती है। छदमस्थदशा में जैसा ध्यान होता है, अरहंत भगवान को वैसा ध्यान नहीं करना पड़ता; १. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ-४३८

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