Book Title: Pravachansara Anushilan Part 2
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 225
________________ प्रवचनसार गाथा १९७-१९८ विगत गाथा में ज्ञानी श्रावक और मुनिराजों के होनेवाले ध्यान की चर्चा करके अब इन आगामी गाथाओं में सर्वज्ञ भगवान के ध्यान की चर्चा करते हैं; यह बताते हैं कि केवलज्ञानी किसका ध्यान करते हैं ? गाथायें मूलतः इसप्रकार हैं णिहदघणघादिकम्मो पच्चक्खं सव्वभावतच्चण्हू । णेयंतगदो समणो झादि कमठ्ठे असंदेहो । । १९७ सव्वाबाधविजुत्तो समंतसव्वक्खसोक्खणाणड्ढो । भूदो अक्खातीदो झादि अणक्खो परं सोक्खं । । १९८ । । ( हरिगीत ) घन घातिकर्म विनाश कर प्रत्यक्ष जाने सभी को । संदेहविरहित ज्ञेय ज्ञायक ध्यावते किस वस्तु को ।। १९७ ।। अतीन्द्रिय जिन अनिन्द्रिय अर सर्व बाधा रहित हैं। चहुँ ओर से सुख - ज्ञान से समृद्ध ध्यावे परमसुख । । १९८ । । घनघातिकर्मों के नाशक, सर्व पदार्थों के प्रत्यक्ष ज्ञाता और ज्ञेयों के पार को प्राप्त करनेवाले, सम्पूर्ण ज्ञेयों को जाननेवाले संदेह रहित श्रमण अर्थात् अरहंत भगवान किस पदार्थ का ध्यान करते हैं। अनिन्द्रिय और इन्द्रियातीत हुआ सर्वबाधारहित परिपूर्ण सुख से और सम्पूर्ण ज्ञान से समृद्ध आत्मा अर्थात् अरहंत भगवान परमसुख का ध्यान करते हैं। उक्त गाथाओं का भाव आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "लौकिक जनों के, मोह का और ज्ञानशक्ति के प्रतिबंधक का सद्भाव होने से, तृष्णा सहित होने से और उनके प्रत्यक्षज्ञान का अभाव होने से, वे लौकिकजन अपने विषय को भी स्पष्टरूप से नहीं जानते; इसकारण वे लौकिक जन, जिनकी अभिलाषा हो ऐसे अभिलषित, गाथा - १९७-१९८ ४४३ जिनको जानने की इच्छा हो - ऐसे जिज्ञासित और संदिग्ध पदार्थों का ध्यान करते हुये दिखाई देते हैं; परन्तु सर्वज्ञ भगवान के घाति कर्मों के अभाव से मोह का अभाव और ज्ञानशक्ति के प्रतिबंधक का अभाव होने के कारण, तृष्णा नष्ट हो जाने के कारण सर्वज्ञ भगवान ने समस्त पदार्थों को प्रत्यक्ष जान लिया है अर्थात् ज्ञेयों के पार को प्राप्त कर लिया है; इसलिए वे सर्वज्ञ भगवान अभिलाषा नहीं रखते, उन्हें जिज्ञासा और संदेह नहीं होता; तब फिर उनके अभिलषित, जिज्ञासित और संदिग्ध पदार्थ कैसे हो सकते हैं ? यदि ऐसा है तो फिर वे क्या ध्याते हैं, किसका ध्यान करते हैं ? सहज सुख और ज्ञान की बाधक तथा अपूर्ण और असर्वांग सुख व ज्ञान की आयतन इन्द्रियों के अभाव के कारण जब यह आत्मा स्वयं अनिन्द्रियरूप से वर्तता है; उसी समय दूसरों को इन्द्रियगोचर वर्तता हुआ निराबाध सहजसुख और ज्ञानवाला होने से सर्वबाधा रहित और सर्वप्रकार के सुख और ज्ञान से परिपूर्ण होने से सुख और ज्ञान से समृद्ध होता है। इसप्रकार यह आत्मा सर्व अभिलाषा, जिज्ञासा और संदेह का असंभव होने पर भी अपूर्व और अनाकुलत्व लक्षण परम सौख्य का ध्यान करता है अर्थात् अनाकुलता के साथ रहनेवाले एक आत्मारूपी विषय के अनुभवनरूप ही स्थित रहता है। इसप्रकार स्थित रहना, सहजज्ञान और आनन्द जिसका स्वभाव है - ऐसे सिद्धत्व की प्राप्ति ही है।" 1 आचार्य जयसेन इन गाथाओं का अर्थ स्पष्ट करते केवली हुए भगवान किसका ध्यान करते हैं ? - इस बात को सोदाहरण समझाते हैं। “जिसप्रकार कोई देवदत्त नामक पुरुष विषयसुख की प्राप्ति के लिए किसी विद्या की आराधनारूप ध्यान करता है; किन्तु जब विद्या सिद्ध हो जाती है और वाञ्छित विषयसुख भी मिल जाता है तो फिर वह उस विद्या की आराधनारूप ध्यान नहीं करता ।

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