Book Title: Pravachansara Anushilan Part 2
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 224
________________ गाथा-१९६ ४४१ ४४० प्रवचनसार अनुशीलन मुनियों ने मोह-राग-द्वेष टाला है, इसलिए उनको परद्रव्य में प्रवृत्ति नहीं और राग-द्वेष का अभाव होने से परद्रव्य से विरक्तता है। स्वज्ञेय का विवेकपूर्ण श्रद्धा-ज्ञान करने से सम्यग्दर्शन होता है, जिससे दर्शनमोह का नाश होता है तथा दर्शनमोह के नाश के पश्चात् आत्मस्थिरता होने पर चारित्रमोह अर्थात् राग-द्वेष का भी नाश होता है; मोह-राग-द्वेष का नाश होने पर परद्रव्य के प्रति प्रवृत्ति का अभाव होता है, परद्रव्य के प्रति प्रवृत्ति का अभाव होने से मन की चंचलता का अभाव होता है, मन की चंचलता का अभाव होने से आत्मा में एकाग्रता होती है, तब उसे ध्यान होता है तथा ध्यान के फल में केवलज्ञान और सिद्धपद मिलता है। यद्यपि अहँत तीनलोक त्रिकालवर्ती समस्त पदार्थों को एकसाथ एक ही समय में जानते हैं, उनके अठारह दोष भी नष्ट हो गये है; फिर भी उन्होंने परिपूर्ण स्वज्ञेय दशा को प्राप्त नहीं किया। अभी वहाँ पर योगगुण तथा प्रतिजीवी गुणों आदि की अशुद्धता है तथा उनके अभी अघाति कर्म भी विद्यमान हैं, इतनी उस स्वज्ञेय में कचास है; इसकारण अरहंत को ध्यानदशा है। सिद्धदशा परिपूर्ण शुद्धज्ञेय है, उसे ध्यान नहीं होता । अरहंत को अभी भी अशुद्धता है, इसलिये ध्यान बाकी है। ऐसे ज्ञेय का यथार्थ स्वरूप बताने के लिए अहँत के शुक्लध्यान की बात ज्ञेय अधिकार में ली है।” इस गाथा में ध्याता का स्वरूप बताया गया है। कहा गया है कि जिन्होंने मिथ्यात्व का नाश कर दिया है अर्थात् सम्यग्दर्शन-ज्ञान प्राप्त कर लिया है; वे भव्य जीव जब विषयों से विरक्त होकर, मन का निरोध करके, स्वभाव में स्थित होते हैं; तब वे आत्मा का ध्यान करनेवाले ध्याता संत होते हैं। ___मन के निरोध को यहाँ सागर के मध्य में स्थित जहाज पर बैठे पक्षी के उदाहरण के माध्यम से समझाया गया है। १. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ-४३३ २. वही, पृष्ठ-४३४-४३५ ३. वही, पृष्ठ-४३५ पानी का जहाज जब सागर के किनारे पर था; तब उस पर एक पक्षी बैठ गया। जहाज चल पड़ा और सागर के मध्य में पहुँच गया। अब पक्षी उड़कर जावे तो जावे कहाँ; क्योंकि दूर-दूर तक न कोई पेड़पौधे दिखाई देते हैं; न मकान । अत: वह मन मारकर जहाज पर ही बैठा रहता है। यदि उड़ता भी है तो फिर लौटकर जहाज पर ही आना पड़ता है; क्योंकि अन्य आश्रय का अभाव है। महाकवि सूरदासजी ने भी लिखा है - जैसे उड़ जहाज को पंखी फिर जहाज पर आवे जहाज का पक्षी उड़ेगा भी तो उड़कर कहाँ जावेगा ? अन्य आश्रय का अभाव होने से आखिर लौट के जहाज पर ही आयेगा। इसीप्रकार उक्त तत्त्वज्ञान के आधार पर जब यह जान लिया गया है कि अपने आत्मा को छोड़कर अन्य कोई पदार्थ आश्रय करने योग्य नहीं है, ध्यान करने योग्य नहीं है; क्योंकि उनके ध्यान से अशान्ति के अतिरिक्त कुछ भी हाथ लगनेवाला नहीं है। अतः यह मन अन्य आश्रय का अभाव होने से आत्मा में ही लगेगा। यदि मन कहीं जायेगा भी तो फिर लौटकर आत्मा पर ही आयेगा। वस्तुत: बात यह है कि वास्तविक सुख-शान्ति आत्मा के आश्रय में है, आत्मा के ज्ञान-ध्यान में ही है; अत: एकमात्र आश्रय करने योग्य भी आत्मा ही है। समय के पहले और भाग्य से अधिक कभी किसी को कुछ नहीं मिलता। जब ऋषभदेव की आहार प्राप्ति की उपादानगत योग्यता पक गई तो आहार देनेवालों को भी जातिस्मरण हो गया। इससे तो यही सिद्ध होता है कि जब अपनी अन्तर से तैयारी हो तो निमित्त तो हाजिर ही रहता है, पर जब हमारी पात्रता ही न पके तो निमित्त भी नहीं मिलते। उपादानगत योग्यता और निमित्तों का सहज ऐसा ही संयोग है। अत: निमित्तों को दोष देना ठीक नहीं है, अपनी पात्रता का विचार करना ही कल्याणकारी है। - पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव, पृष्ठ

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