Book Title: Pravachansara Anushilan Part 2
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 222
________________ गाथा-१९६ ४३७ प्रवचनसार अनुशीलन इससे यह निश्चित होता है कि ध्यान स्वभावसमवस्थानरूप होने से और आत्मा से अनन्य होने से अशुद्धता का कारण नहीं होता।" आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति में शेष बातें तो तत्त्वप्रदीपिका के समान ही प्रस्तुत करते हैं; किन्तु उत्थानिका और निष्कर्ष को बदल देते हैं, नकारात्मक बात को सकारात्मक रूप से प्रस्तुत कर देते हैं। तत्त्वप्रदीपिका की उत्थानिका और निष्कर्ष वाक्य में कहा गया है कि आत्मा का ध्यान अशुद्धता का कारण नहीं है। इसके स्थान पर तात्पर्यवृत्ति में कहा गया है कि शुद्धात्मा के ध्यान से जीव विशुद्ध होता है। इसके उपरान्त वे किंच कहकर चार प्रकार के ध्यानों की चर्चा करते हैं। ध्यान के चार प्रकारों को भी वे तीन प्रकार से प्रस्तुत करते हैं। १. प्रथम प्रकार में ध्यान, ध्यान सन्तान, ध्यान चिन्ता और ध्यान का अन्वय सूचन - इन चार की चर्चा करते हैं। इन्हें स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं कि एकाग्रचित्तानिरोध ध्यान है और वह शुद्ध और अशुद्ध के भेद से दो प्रकार का होता है। अन्तर्मुहूर्त तक ध्यान और फिर अन्तर्मुहूर्त तक तत्त्वचिन्तन । इसीप्रकार निरन्तर ध्यान फिर चिन्तन, फिर ध्यान और फिर चिन्तन - इसप्रकार की स्थिति ध्यानसंतान है। जहाँ ध्यान सन्तान के समान ध्यान का परिवर्तन तो नहीं है, पर ध्यान संबंधी चिन्तन है। कभी-कभी ध्यान भी होता है। इस स्थिति को ध्यानचिन्ता कहते हैं। जहाँ बारह भावना आदि वैराग्यरूप चिन्तन हो, वह ध्यानान्वयसूचन है। २. दूसरे प्रकार में ध्याता, ध्यान, ध्यान का फल और ध्येय - इन चार रूपों को प्रस्तुत करते हैं। ३. तीसरे प्रकार में आर्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल के रूप में ध्यान को प्रस्तुत करते हैं। कविवर वृन्दावनदासजी इस गाथा के भाव को १ मनहरण और ७ दोहों - इसप्रकार ८ छन्दों में प्रस्तुत करते हैं। अत्यन्त उपयोगी होने से यहाँ सभी छन्दों को प्रस्तुत किया जा रहा है। (मनहरण) मोहरूपमैल को खिपावै भेदज्ञानी जीव, इन्द्रिनि के विषैसों विरागता सुपुरी है। मन को निरोधि के सुभाव में सुथिर होत, जहाँ शुद्ध चेतना की ज्ञानजोत फुरी है।। सोई चिनमूरत चिदातमा कोध्याता जानो, परवस्तु से भी जाकी प्रीति रीति दुरी है। ऐसेकुन्दकुन्दजीबखानीध्यान ध्यातावृन्द, सोई सरधानै जाकी मिथ्यामति चुरी है ।।११७।। भेदज्ञानी जीव मोहरूपी मैल को खपाकर, पंचेन्द्रिय विषयों से पूर्ण विरागता धारण कर, मन के निरोधपूर्वक स्वभाव में स्थिर होता है; तब शुद्ध चेतना की ज्ञान ज्योति स्फुरायमान होती है, परवस्तु से जिसकी प्रीति-रीत दूर हो गई है, उसी भेदज्ञानी जीव को चिन्मूरत चिदात्मा का ध्याता जानो। वृन्दावन कवि कहते हैं कि ऐसे जीव ही ध्यान के ध्याता होते हैं। इस बात का श्रद्धान उसी को होगा, जिसकी मिथ्यामति चूर्ण हो गई है। (दोहा) प्रश्न - जोमन चपल पताकपट, पवन दीपसमख्यात । सो मन कैसे होय थिर, उत्तर दीजे भ्रात ।।११८।। जो चपल मन ध्वजा के कपड़े और हवा के झोंके खाते दीपक के समान चंचल है; वह स्थिर कैसे हो सकता है ? हे भाई ! इसका उत्तर दीजिये। उत्तर - पांचों इन्द्रिन के जिते, विषय भोग जगमाहिं। तिनही सों मन रात दिन, भ्रमतो सदा रहाहि ।।११९।।

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