Book Title: Pravachansara Anushilan Part 2
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 221
________________ ४३४ प्रवचनसार अनुशीलन करता है, ध्यान करता है; वह मोह अर्थात् मिथ्यात्व की गाँठ का भेदन कर देता है, ग्रन्थिभेद कर देता है। मोह की गांठ का भेदन करने के बाद अर्थात् मिथ्यात्व और अनन्तानुबंधी कषायों का नाश करने के बाद वह आत्मा अप्रत्याख्यानावरणादि राग-द्वेष का क्षय करता है और समताभाव धारण करता हआ सच्चा श्रमण (मुनिराज) बन जाता है और फिर महाश्रमण (अरिहंत) बनकर अक्षयसुख प्राप्त करता है। इसप्रकार मोहग्रन्थि का नाश करने की प्रक्रिया में श्रावक व श्रमण - दोनों ही सक्रिय रहते हैं; क्योंकि दर्शनमोह अर्थात् मिथ्यात्व का नाश तो मिथ्यादृष्टि श्रावक ही करते हैं; सम्यग्दृष्टि श्रावकों के तो मिथ्यात्व होता ही नहीं। इसीप्रकार अप्रत्याख्यानावरणी आदि रागद्वेष का क्षय मुनिराज ही करते हैं। देखो, विधि की विडम्बना, जो स्वयं तीर्थंकर हो, जिसके जन्मकल्याणक में इन्द्रों ने अतिशय सम्पन्न महोत्सव मनाया हो, जिसके गर्भ में आने के पहले ही देवियाँ माता की सेवा करने आ गई हों; जिसने सम्पूर्ण जगत को कर्मभूमि के आरंभ में सब प्रकार शिक्षित किया हो; उसे दीक्षा लेने के बाद आहार का भी योग न मिला। सातिशय पुण्य के धनी और धर्मात्मा भावलिंगी सच्चे संत होने पर भी उस समय उनके पल्ले में इतना भी पुण्य नहीं था कि विधिपूर्वक दोरोटियाँ ही उपलब्ध हो जाती। पुण्य की कमी थी, ऐसी कोई बात नहीं थी। सत्ता में तो तीर्थंकर प्रकृति पड़ी थी और निरन्तर बंध भी रही थी, पर सत्ता में पड़ा कर्म कार्यकारी नहीं होता । जबतक कर्म उदय में न आवे, तबतक वह कार्य की उत्पत्ति में निमित्त भी नहीं होता और तीर्थंकर प्रकृति का उदय तेरहवें गुणस्थान में होता है, अतः उसके पहले वह किसी कार्य में निमित्त भी नहीं हो सकती। अन्य प्रकार के पुण्य की भी कोई कमी नहीं थी, अन्यथा लोग उन्हें अनेकप्रकार की वस्तुएँ क्यों भेंट करने को उत्सुक होते. पर निरन्तराय आहार की उपलब्धि का न तो पुण्योदय ही था और न उस समय की पर्याय की योग्यता ही ऐसी थी। पाँचों ही समवाय आहार नहीं मिलने के थे। - पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव, पृष्ठ-५६-५७ प्रवचनसार गाथा १९६ 'शुद्धात्मा की उपलब्धि से मोहग्रन्थि का नाश और मोहग्रन्थि के नाश से अतीन्द्रिय सुख की प्राप्ति होती है।' - विगत गाथाओं में यह स्पष्ट करने के उपरान्त अब इस गाथा में यह बताते हैं कि आत्मा का ध्यान अशुद्धता का कारण नहीं होता। गाथा मूलत: इसप्रकार है - जोखविदमोहकलुसो विसयविरत्तोमणो णिलंभित्ता। समवट्ठिदो सहावे सो अप्पाणं हवदि झादा ।।१९६।। (हरिगीत) आत्मध्याता श्रमण वह इन्द्रियविषय जो परिहरे। स्वभावथित अवरुद्ध मन वह मोहमल का क्षय करे ।।१९६।। जो संत मोहमल का क्षय करके, विषयों से विरक्त होकर, मन का निरोध करके, स्वभाव में समवस्थित हैं; वे संत आत्मा का ध्यान करनेवाले हैं। इस गाथा का भाव तत्त्वप्रदीपिका टीका में आचार्य अमृतचन्द्र इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - “मोहमल का क्षय करनेवाले आत्मा के, मोहमल जिसका मूल है - ऐसी परद्रव्यप्रवृत्ति का अभाव होने से विषयविरक्तता होती है। उक्त विषयविरक्तता से, समुद्र के मध्यगत जहाज के पक्षी की भांति, अधिकरणभूत द्रव्यान्तरों के अभाव होने से जिसे कोई अन्य शरण नहीं रहा है - ऐसे मन का निरोध होता है। मन का निरोध होने से, मन जिसका मूल है - ऐसी चंचलता का विलय होने से अनंत सहज चैतन्यात्मक स्वभावसमवस्थान होता है। उस स्वभावसमवस्थान को स्वरूप में प्रवर्तमान, अनाकुल, एकाग्रसंचेतन होने से ध्यान कहा जाता है।

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