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प्रवचनसार अनुशीलन इस जगत में जितने आत्मा हैं, उनसे अनंतगुणी कार्मणवर्गणाओं का समूह लोक में भरा पड़ा है। उनमें से जिनकी कर्मरूप होने की योग्यता होती है, उतने परमाणु कर्मरूप से परिणमित हो जाते हैं और आत्मा के साथ एकक्षेत्र में रहते हैं।' ___बरसात होने पर पुद्गल हरे, सफेद और लालरूप परिणमता है; उसीप्रकार जीव स्वयं के ज्ञाता-दृष्टा स्वभाव को भूलकर शुभाशुभ भावरूप परिणमता है, तब पुद्गल परमाणु स्वयं के कारण ज्ञानावरण, दर्शनावरण इत्यादि विचित्रतारूप जुदे-जुदे बंधरूप होते हैं।
प्रथम तो जीव को निश्चित करना चाहिए कि प्रत्येक पर्याय स्वतंत्र होती है। विकार पर के कारण नहीं होता । स्वभाव में विकार नहीं है। स्वभाव तो ज्ञाता-दृष्टा शुद्धस्वरूप है। इसप्रकार संयोगों और अंश के ऊपर से रुचि हटाकर, अंशी स्वरूप के ऊपर लक्ष्य करें तो शांति प्रगट होती है। __ प्रतिसमय पर्याय क्रमबद्ध हो रही है। उस क्रम के ऊपर का लक्ष्य छोड़कर अक्रम शांत ज्ञातादृष्टारूप शुद्धस्वभाव पर झुके, उसकी श्रद्धाज्ञान करे तो क्रमबद्धपर्याय का निर्णय सच्चा कहा जाता है। अक्रमस्वभाव के निर्णय बिना जो होना होगा, वह होगा - ऐसा ऊपर से बोले सो वह क्रमबद्ध पर्याय का निर्णय नहीं।
जो एक समय के विकार को स्वतंत्र स्वीकार करता है, वह अंशीस्वभाव को भी स्वतंत्र स्वीकारता है - ऐसी स्वभाव दृष्टि करने वाले का निर्णय सच्चा है।
द्रव्यकर्मों की विचित्रता का बंध स्वतंत्र होता है, उसमें शुभाशुभ परिणाम निमित्त मात्र हैं - ऐसा यथार्थ ज्ञान करके पर्याय के स्वतंत्रक्रम के ऊपर से लक्ष्य उठाकर अक्रमस्वभाव की श्रद्धा-ज्ञान करना ही धर्म है।"
गाथा-१८६-१८७ ___ उक्त सम्पूर्ण कथन का सार यह है कि प्रत्येक पदार्थ स्वयं के परिणमन का कर्ता स्वयं है। कर्ता के संबंध में कहा गया है कि स्वतंत्र: कर्ता' । जो अपने कार्य को स्वतंत्ररूप से करे, उसे कर्ता कहते हैं। ___ जीव द्रव्य अपने निर्मल परिणामों को स्वतंत्रपने करता है; इसलिए वह उनका कर्ता तो है ही; किन्तु अज्ञानावस्था में विकारी परिणामों का कर्ता भी वही है। यद्यपि विकारी भावों में कर्मोदय निमित्त होता है; तथापि वह कर्मोदय तो मात्र निमित्त ही है, कर्ता नहीं। ____तात्पर्य यह है कि वास्तविक कर्ता तो उपादान ही होता है। कहा गया है कि यः परिणमति स कर्ताः जो परिणमित होता है, वही कर्ता होता है।
इसप्रकार यह सुनिश्चित होता है कि ज्ञानी जीव ज्ञानभाव (निर्मल परिणाम - शुद्धभाव) का कर्ता है और अज्ञानी जीव अज्ञानभाव का कर्ता है।
इसे इसप्रकार भी कह सकते हैं कि यह जीव ज्ञानावस्था में ज्ञानभावों का और अज्ञानावस्था में अज्ञानभावों का कर्ता है।
भावकर्म जीव के विकारी परिणाम हैं; अतः अज्ञानावस्था में वह उनका कर्ता है और द्रव्यकर्म पौद्गलिक कार्मणवर्गणाओं के कार्य हैं; अत: उनका कर्ता पुद्गल ही है, जीव नहीं। कहा भी है -
ग्यान-भाव ग्यानी करै, अग्यानी अग्यान।
दर्वकर्म पुद्गल करै, यह निहचै परवान ।।१७।। ज्ञानी ज्ञानभावों का व अज्ञानी अज्ञानभावों का कर्ता है और पौद्गलिक द्रव्य-कर्मों का कर्ता पुद्गल है - यह निश्चयनय का कथन है।
यहाँ एक प्रश्न संभव है कि यदि रागादि भाव अज्ञानभाव हैं तो वे ज्ञानी के भी तो रागादि भाव पाये जाते हैं; उनका कर्ता कौन है ?
१. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ-३६१ २. वही, पृष्ठ-३६४ ४. वही, पृष्ठ-३६७
३. वही, पृष्ठ-३६६-३६७ ५. वही, पृष्ठ-३६७
१. समयसार कलश, कलश ५१ २. समयसार नाटक, कर्ताकर्मक्रियाद्वार, छन्द-१७, पृष्ठ-८०