Book Title: Pravachansara Anushilan Part 2
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 201
________________ गाथा-१८६-१८७ प्रवचनसार अनुशीलन “परद्रव्य के ग्रहण-त्याग से रहित होता हुआ भी संसारावस्था में यह आत्मा परद्रव्य के परिणाम को निमित्तमात्र करते हुए केवल स्वपरिणाममात्र का कर्तृत्व अनुभव करता हुआ, उसके इसी परिणाम को निमित्तमात्र करके कर्मपरिणाम को प्राप्त होती हुई पुद्गलरज के द्वारा विशिष्ट अवगाहरूप से कदाचित् ग्रहण किया जाता है और छोड़ा जाता है। जिसप्रकार नये मेघजल के भूमिसंयोगरूप परिणाम के साथ अन्य पुद्गलपरिणाम स्वयमेव विचित्रता को प्राप्त होते हैं; उसीप्रकार आत्मा के शुभाशुभपरिणामों के समय कर्मपुद्गल परिणाम स्वयमेव विचित्रता को प्राप्त होते हैं। जिसप्रकार नये मेघजल के भूमि के संयोग में आने पर अन्य पुद्गल स्वयमेव विचित्रता को प्राप्त हरियाली, कुकुरमुत्ता और इन्द्रगोप आदि रूप परिणमित होते हैं; उसीप्रकार जब यह आत्मा राग-द्वेष के वशीभूत होता हुआ शुभाशुभभावरूप परिणमित होता है; तब योग द्वारों से प्रविष्ट होते हुए अन्य कर्मपुद्गल स्वयमेव विचित्रता को प्राप्त ज्ञानावरणादि भावरूप परिणमित होते हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि कर्मों की विचित्रता उनके स्वभावकृत ही है, आत्मकृत नहीं।" ___ आचार्य जयसेन इन गाथाओं का भाव तात्पर्यवृत्ति टीका में तत्त्वप्रदीपिका टीका के समान ही स्पष्ट करते हैं। कविवर वृन्दावनदासजी इन गाथाओं के भाव को २ मनहरण कवित्त और १ दोहा के माध्यम से इसप्रकार प्रस्तुत करते हैं - (मनहरण) सोई जीव दर्व अब संसार अवस्था मांहि, अशुद्ध चेतना जो विभाव की ढरनि है। ताही को बन्यौ है करतार ताके निमित्त सों, याके आठ कर्मरूप धूलि की धरनि है ।। सेई कर्म धूल मूल भूल को सुफल देहि, फेरी काहू कालमाहिं तिनकी करनि है। ऐसे बंधजोग भाव आपनो विभाव जानि, त्यागै भेदज्ञानी जासों संसृत तरनि है ।।१४।। वही जीवद्रव्य संसारावस्था में विभावभावरूप अशुद्ध चेतना में ढलकर उसका कर्ता बनता है और उसके निमित्त से आठ कर्मों की धूल में मिल जाता है। ___ उक्त कर्म धूल जब उदय में आती है तो उसके निमित्त से नये मोहराग-द्वेष भाव पैदा होते हैं । इसप्रकार बंध योग्य भाव तो अपने विभावभाव ही हैं। इसलिए भेदज्ञानी जीव उनका त्याग करके संसार समुद्र से पार होते हैं। (मनहरण) जबै जीव राग-दोष समल विभावजुत, शुभाशुभरूप परिनाम को ठटत है। तबै ज्ञानावरनादि कर्मरूप परज याके, जोग द्वार आय के प्रदेश पै पटत है।। जैसे रितु पावस में धाराधर धारनि तें, धरनि में नूतन अंकुरादि अटत है। तैसे ही शुभाशुभ अशुद्ध रागदोषनि तैं, पुग्गलीक नयौ कर्म बंधन वटत है।।१५।। जब यह जीव राग-द्वेषरूप समल विभाव भावों से युक्त होता है, शुभाशुभभावरूप परिणमित होता है; तब योगों के द्वारा कार्माणवर्गणायें आत्मप्रदेशों में एकक्षेत्रावगारूप हो जाती हैं और ज्ञानावरणादिरूप परिणमित होती हैं। जिसप्रकार वर्षा ऋतु में बादलों के बरसने से पृथ्वी नये अंकुरों से आच्छादित हो जाती है; उसीप्रकार राग-द्वेषरूप शुभाशुभ अशुद्धभावों से पौद्गलिक वर्गणायें नये कर्मबंधन के रूप में परिणमित हो जाती हैं।

Loading...

Page Navigation
1 ... 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241