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प्रवचनसार अनुशीलन
क्योंकि साध्य के शुद्ध होने से द्रव्य के शुद्धत्व का द्योतक (प्रकाशक) होने से निश्चयनय ही साधकतम है; किन्तु अशुद्धत्व का द्योतक व्यवहारनय साधकतम नहीं है।"
यद्यपि आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में इस गाथा का अर्थ आचार्य अमृतचन्द्रकृत तत्त्वप्रदीपिका टीका के समान ही करते हैं; तथापि अन्त में एक प्रश्न उठाकर उसका समाधान इसप्रकार प्रस्तुत करते हैं -
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“यहाँ प्रश्न है कि आत्मा रागादि को करता - भोगता है - ऐसे लक्षणवाला निश्चयनय कहा, वह उपादेय कैसे हो सकता है ?
इसके उत्तर में कहते हैं कि आत्मा रागादि को ही करता है; द्रव्यकर्म नहीं करता। रागादि ही बंध के कारण हैं, जब जीव ऐसा जानता है, तब राग-द्वेष आदि विकल्पजाल को छोड़कर रागादि के विनाश के लिए निज शुद्धात्मा की भावना करता है। इससे रागादि का विनाश होता है और रागादि का विनाश होने पर आत्मा शुद्ध होता है; इसलिए परम्परा से शुद्धात्मा का साधक होने के कारण यह अशुद्धनय भी उपचार से शुद्ध कहलाता है, निश्चयनय कहलाता है और इसी कारण उपादेय कहा जाता है - ऐसा अभिप्राय है।"
कविवर वृन्दावनदासजी उक्त गाथा का भाव २ मनहरण, २ छप्पय, १२ दोहा और १ चौबोला- इसप्रकार ७ छन्दों में स्पष्ट करते हैं; जो सभी मूलत: पठनीय हैं।
नमूने के रूप में एक छन्द प्रस्तुत है -
( मनहरण ) पुण्य-पापरूप परिनाम जो हैं आतमा के,
रागादि सहित ताको आप ही है करता । तिन परिनामनि कौं आप ही गहन करे,
आपु ही जतन करै ऐसी रीति धरता ।। तार्तैइस कथनको कथंचित्शुद्धदरवारथीक,
नय
ऐसे भनी भर्महरता ।
गाथा - १८९
गलीक दर्व कर्म को है करतार सो,
अशुद्ध विवहारनयद्वार तैं उचरता ।। ९९ ।। रागादि सहित आत्मा के जो पुण्य-पापरूप परिणाम हैं, उनका कर्ता आत्मा स्वयं ही है। उन परिणामों को आत्मा स्वयं ही ग्रहण करता है, धारण करता है और उनका जतन करता है, सम्भाल करता है। भ्रम का हरण करनेवाले अरहंत भगवान उक्त रीति को धारण करने से इस कथन को कथंचित् शुद्धद्रव्यार्थिकनय कहते हैं और वे ही अरहंत भगवान यह कहते हैं कि अशुद्ध व्यवहारनय की अपेक्षा आत्मा पौद्गलिक द्रव्यकर्मों का कर्ता है।
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उक्त गाथा का भाव पण्डित देवीदासजी एक पद्य में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
( सवैया इकतीसा )
राग दोस मोहरूप परिनाम सौं सु बंध जग मांहिं दयो समुझाइ पुनि पुनि कैं । सुद्ध जीव कथन सु निश्चै नय जाके क
बंध है सुनिश्चै बंध लखौ एक मुनि कैं ।। बाकी और संसारी सुजीवनि कैं द्रव्यकर्म
बंध व्यवहार सौं सुजानौं भव्य सुनि कैं । निश्चय सु बंध उपादेय सुद्ध विवहार
यसो असुद्ध की केवली की धुनि कैं ।। १५१ ।। जगत में मोह-राग-द्वेष परिणामों से संसारी जीव कर्मबंधन में पड़ते हैं - इस बात को आचार्यदेव ने भलीभाँति समझा दिया है। शुद्धजीव की कथनी में अशुद्ध निश्चयनय से बंध होता है; अतः संज्वलन कषाय संबंधी रागादि रूप परिणमित होने से मुनिराजों को भी बंध होता है। शेष संसारी जीवों के होनेवाला द्रव्यकर्म का बंध इससे जुदा है। हे भव्यजीवो! यह कथन व्यवहारनय का जानना चाहिए। केवली भगवान की दिव्य-ध्वनि में तो यह कहा है कि निश्चयनय से बंध होता है; परन्तु व्यवहारनय से शुद्धव्यवहार उपादेय है और अशुद्धव्यवहार हेय है।