Book Title: Pravachansara Anushilan Part 2
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 206
________________ ४०४ प्रवचनसार अनुशीलन जाता है; उसीप्रकार संसार में सप्रदेशी जीव मोह-राग-द्वेष करके ज्ञानावरणादि अष्ट कर्मों को सर्वांग बाँध लेता है। इसप्रकार जिनेश्वरदेव ने बंध कथा कही है अर्थात् बंध का स्वरूप प्रगट किया है, कहा है। आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "अज्ञानी तथा ज्ञानी को स्वयं के भाव का बंधन है, कर्म का बंधन नहीं। जिसप्रकार वस्त्र के ताने-बाने घने हैं और वह घने ताने-बानेवाला वस्त्र स्वयं ही मजीठ आदि जुदे-जुदे रंगों से रंगा हुआ है; उसीप्रकार स्वभाव की श्रद्धा-ज्ञान न होने पर अज्ञानी जीव मोह-राग-द्वेष से रंगा है और ज्ञानी जीव स्वयं की स्थिरता से चूककर अस्थिरता के राग-द्वेष से रंगा है। इसतरह आत्मा स्वयं के भावबंध से बंधा है; जड़कर्म से नहीं बंधा है। ___ ज्ञानी अथवा अज्ञानी का माप बाह्य-संयोगों से नहीं; अपितु अंतर परिणमन से है। कोई कहता है कि एक व्यक्ति पूजा-भक्ति करता था; किन्तु सच्चा वस्तुस्वरूप समझने पर उसने पूजा-भक्ति करना छोड़ दिया; इसलिए वह धर्मी नहीं है; इसतरह से हमें मात्र बाह्य-संयोग अथवा क्रिया से माप नहीं करना चाहिए; क्योंकि धर्मी जीव कई बार स्वयं के स्वभाव का विशेष घोलन करने हेतु स्वाध्याय में लगे हों अथवा स्वयं के स्वरूप संबंधी विचार में हों तो उन्हें पूजा-भक्ति का विकल्प कदाचित् न भी उठे, वह उस समय ऐसे बाह्य संयोगों में भी न दिखें; किन्तु इसकारण उन्हें सच्चे देव-गुरु-शास्त्र के प्रति प्रमोद नहीं - ऐसा एकान्त से नहीं मानना चाहिए; क्योंकि बाह्य-क्रिया तो ज्ञानी तथा अज्ञानी दोनों ही नहीं कर सकते। जो विकार होता है, वह निश्चय से तुम्हारे द्रव्य में होता है; तुम्हारे द्रव्य में जो कुछ होता है, वह पर के निमित्त के बिना ही होता है - ऐसा कहकर यहाँ निश्चय का विषय विशेष द्रव्य अर्थात् विकारी द्रव्य है - १. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ-३६८ २. वही, पृष्ठ-३६९ गाथा-१८८ ४०५ ऐसा कहा है और समयसार में विकार तुम्हारा स्वरूप नहीं - ऐसा सामान्य शुद्धद्रव्य का लक्ष्य कराकर सामान्य शुद्धद्रव्य को निश्चय का विषय कहा है। यहाँ प्रवचनसार में ज्ञान-प्रधान कथन होने से विकारी पर्याय को जीव का ही बताया है, कर्मकृत नहीं बताया। ऐसा पर से भिन्न बताकर निश्चय का विषय विकारी द्रव्य है - ऐसा कहा है; इसलिए सही अपेक्षा समझनी चाहिए। इसप्रकार आत्मा अकेला ही स्वयं के भाव के साथ बंधरूप होता है - ऐसा समझकर बंधरहित शुद्धस्वभाव की श्रद्धा-ज्ञान करना चाहिये; क्योंकि यही धर्म है।" उक्त तथ्य को बड़ी ही रोचक शैली में कविवर पण्डित भूधरदासजी ने इसप्रकार व्यक्त किया है (मनहरण) कहै एक सखी स्यानी सुन री सुबुद्धि रानी तेरौ पति दुःखी देख लागे उर आर है। महा अपराधी एक पुद्गल है छहों मांहि । सोई दुःख देत दीसै नाना परकार है ।। कहत सुबुद्धि आली कहा दोष पुद्गल को अपनी ही भूल लाल होत आपख्वार है। खोटौ दाम आपनो सराफै कहा लगे वीर काहू को न दोष मेरौ भोंदू भरतार है।। सुबुद्धि रानी से उसकी एक सखी कहती है कि हे सुबुद्धि रानी ! तुम मेरी एक बात ध्यान से सुनो। तुम्हारे पति को दुखी देखकर मुझे लगता है कि उसके हृदय में कोई शूल चुभ रहा है। मेरा कहना तो यह है कि लोक के इन छह द्रव्यों में यह एक पुद्गलद्रव्य ही महा अपराधी है। यह कर्मरूप पुद्गल द्रव्य ही तुम्हारे पति को अनेक प्रकार के दुख देता दिखाई दे रहा है। १. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ-३७१

Loading...

Page Navigation
1 ... 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241