Book Title: Pravachansara Anushilan Part 2
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 216
________________ प्रवचनसार अनुशीलन “शुद्ध आत्मा सत् और अहेतुक है, उसे दूसरे पदार्थ की जरूरत नहीं । यदि आत्मा को किसी ने बनाया हो तो उसकी नित्यता नहीं रहती और जो नित्य है, उसकी शुरुआत नहीं हो सकती। ' शुद्धचैतन्यतत्त्व अनादि अनंत है। वह स्वयं से है, अन्य के कारण नहीं । उसे कोई बनानेवाला नहीं; इसलिए आत्मा अनादि अनंत स्वतः सिद्ध पदार्थ है। ४२४ शुद्धात्मा ही ध्रुव है, इसलिए वही एक शरण लेने योग्य है। १. कुटुंब, पैसा, देव-गुरु-शास्त्र, शरीर, कर्म इत्यादि इस आत्मा की अपेक्षा ध्रुव नहीं। संयोग पलट जाता है, इसलिए वह अध्रुव है, उनकी शरण लेने से धर्म नहीं होता। २. शुभाशुभ भाव प्रतिसमय होते हैं; वे अध्रुव हैं। विकल्प भी शरणभूत नहीं । व्यवहार रत्नत्रय भी अध्रुव है; इसलिए उसके आश्रय से भी धर्म नहीं होता। ३. नित्य, स्वतःसिद्ध, अकारणीय आत्मा ही ध्रुव है, अन्य कोई ध्रुव नहीं। वह ध्रुव आत्मा ही एक शरण लेने योग्य है। आत्मा ध्रुव, शुद्ध, चैतन्य है ऐसी दृष्टि होने पर जो स्वपरप्रकाशक ज्ञान खिला, उसमें शरीर तथा संयोग का ज्ञान है, वह ज्ञान सच्चा है; किन्तु पर के साथ तन्मय हुआ एकत्वबुद्धि सहित अकेला परप्रकाशक ज्ञान मिथ्या है। आत्मा का परद्रव्य से विभाग और स्वधर्म से अविभाग होने के कारण एकपना है। उसका एकपना पाँच कारणों से हैं। १. आत्मा ज्ञानस्वभावी है, राग और पर को करना उसका स्वरूप नहीं, इसलिए एक है। २. आत्मा दर्शनस्वभावी है, इसलिए एक है। १. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ- ३९७ २. वही, पृष्ठ-३९८ ३. वही, पृष्ठ-३९९ गाथा - १९२-१९३ ४२५ ३. इन्द्रियों के अवलंबन बिना जानता है; इसलिए अतीन्द्रिय महापदार्थपने के कारण एक है। ४. दूसरे पदार्थ चलायमान हैं, शुभाशुभ भाव भी चल हैं। आत्मा एक अचल है, इसलिए अचलपने के कारण एक है। ५. निमित्तों का अवलंबन नहीं, इसलिए निरालंबनपने के कारण एक है। आत्मा एक है, इसलिए शुद्ध है और वही ध्रुव है। ध्रुव आत्मा ही शरणभूत है, उससे ही धर्म प्रगट होता है। २ आत्मा ज्ञानात्मकपने के कारण, दर्शनभूतपने के कारण, अतीन्द्रिय महापदार्थपने के कारण, अचलपने के कारण और निरालंबनपने के कारण एक है। एकपने के कारण आत्मा शुद्ध है और शुद्धता ही ध्रुव है। ध्रुव आत्मा सम्यग्दर्शन का ध्येय है, उसकी श्रद्धा - ज्ञान करने से निर्मल पर्याय प्रगट होती है। इसलिए ध्रुव आत्मा ही अनुभव करने योग्य है। स्त्री, कुटुंब तथा पैसा आत्मा को शरणभूत नहीं, देव-गुरु-शास्त्र भी शरणभूत नहीं; इसलिए उनका अवलंबन छोड़कर, स्वपदार्थ का अवलंबन करके आत्मा के साथ एकत्व का अनुभव करना मोक्षमार्ग है। पर से भिन्न होकर स्व में एकाग्र होना ही शुद्धता है और वही ध्रुव है तथा ध्रुव आत्मा ही सम्यग्दर्शन का विषय है। निगोद से लेकर पंचपरमेष्ठी और परमाणु से लेकर अचेतन महास्कंध तक सभी परपदार्थ आत्मा से जुदे हैं। जब जीव स्वलक्ष्य करता है, तब विकार नहीं होता; किन्तु जब परलक्ष्य करता है, तब विकार होता है, उससमय परपदार्थों को निमित्त कहा है; क्योंकि उनके लक्ष्य से शुद्धता न होकर अशुद्धता ही होती है। इसलिए मेरे लिए कोई भी परपदार्थ शरणभूत नहीं है, मात्र शुद्ध आत्मा ही ध्रुव है और वही शरणभूत है। परपदार्थ असत् है, अहेतुक १. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ ४०१ २. वही, पृष्ठ ४०१ ३. वही, पृष्ठ ४०२ ४०३

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