Book Title: Pravachansara Anushilan Part 2
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 207
________________ ४०६ प्रवचनसार अनुशीलन उत्तर में सुबुद्धि रानी कहती है कि हे सखी ! इसमें पुद्गल का क्या दोष है ? मेरा स्वामी अपनी भूल से ही दुखी हो रहा है। जब अपना सिक्का (सोना) ही खोटा हो तो फिर सर्राफ को दोष देने से क्या लाभ है ? अरी बहिन ! अन्य किसी का कोई दोष नहीं है; मेरा पति स्वयं ही भौयूँ है, अज्ञानी है। कहा भी है - कर्म विचारे कौन भूल मेरी अधिकाई । अग्नि सहै घनघात लौह की संगति पाई ।। इसमें कर्मों का क्या दोष है, इसमें तो मेरी ही अधिकाधिक भूल है। लौह की संगति पाकर अग्नि को घन के घात सहन करने ही पड़ते हैं। तात्पर्य यह है कि यह आत्मा स्वयं अपनी भूल से ही दुःखी है। और अपने आत्मा के आश्रय से अपनी भूल सुधारकर सुखी भी हो सकता है। उक्त सम्पूर्ण कथन का सार यह है कि यहाँ यह कहा जा रहा है कि आत्मा अपने पर्यायस्वभाव से रागादिरूप परिणत हो रहा है; इसमें कर्मोदयरूप निमित्त का कोई दोष नहीं है। ध्यान रहे यहाँ उक्त कथन को शुद्धद्रव्य का निरूपण करनेवाले शुद्धनिश्चयनय का कथन कहा गया है। अगली गाथा की टीका में इस बात को और भी अधिक स्पष्टरूप से कहा जायेगा । नयों के कथन करनेवाले ग्रन्थों में इसप्रकार के प्रयोग देखने में नहीं आते; अन्यत्र भी विरल ही हैं। आत्मानुभूति की दशा शुद्ध भाव है और आत्मानुभूति प्राप्त करने का विकल्प शुभ भाव। आत्मानुभूति प्राप्त करने के विकल्प अशुभ भावों के अभावपूर्वक ही आते हैं। आत्मानुभूति की प्राप्ति के प्रयत्न काल में हिंसादि और भोगादि के विकल्प बने रहें, यह संभव ही नहीं। - मैं कौन हूँ, पृष्ठ १४ प्रवचनसार गाथा १८९ विगत गाथाओं में निश्चय - व्यवहार की संधिपूर्वक अनेकप्रकार से संबंधित विषयवस्तु को प्रस्तुत किया गया; अब इस गाथा में यह बताते हैं कि निश्चय - व्यवहार में किसी भी प्रकार का विरोध नहीं है, अपितु अविरोध ही है। गाथा मूलतः इसप्रकार है - ऐसो बंधसमासो जीवाणं णिच्छयेण णिद्दिट्ठो । अरहंतेहिं जीणं ववहारो अण्णहा भणिदो ।। १८९ ।। ( हरिगीत ) यह बंध का संक्षेप जिनवरदेव ने यतिवृन्द से। नियतनय से कहा है व्यवहार इससे अन्य है ।। १८९ ।। अरहंत भगवान ने गणधरादि यतियों के समक्ष निश्चयनय से जीवों के बंध का संक्षिप्त विवरण उक्त प्रकार से प्रस्तुत किया है; पर व्यवहारनय का कथन इससे भिन्न कहा है। आचार्य अमृतचन्द्र इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं " रागपरिणाम ही आत्मा का कर्म है और वही रागपरिणाम पुण्यपापरूप द्वैत है। आत्मा रागपरिणाम का ही कर्ता है, उसी का ग्रहण करनेवाला है और उसी का त्याग करनेवाला है। यह शुद्धद्रव्य का निरूपणस्वरूप निश्चयनय है । जो पुद्गलपरिणाम आत्मा का कर्म है, वही पुण्य-पापरूप द्वैत है। आत्मा पुद्गल परिणाम का ही कर्ता है, उसका ग्रहण करनेवाला और छोड़नेवाला है । - ऐसा जो नय है, वह अशुद्ध द्रव्य के निरूपणस्वरूप व्यवहारनय है । यह दोनों नय हैं; क्योंकि शुद्धरूप और अशुद्धरूप - दोनों प्रकार से द्रव्य की प्रतीति की जाती है। किन्तु यहाँ निश्चयनय साधकतम होने से ग्रहण किया जाता है;

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