________________
३९२
प्रवचनसार अनुशीलन पर-पदार्थ का ग्रहण-त्याग कर सकता हैं - ऐसा माननेवाले को धर्म नहीं होता।
इसप्रकार शरीर, कर्म इत्यादि आत्मा के साथ एकक्षेत्र में होने पर भी आत्मा पर-पदार्थों के ग्रहण-त्याग रहित है - ऐसा निश्चित होता है। ___यह ज्ञेय अधिकार है। स्वज्ञेय में अपने परिणाम तू कर सकता है; किन्तु शरीर, कर्म आदि परज्ञेयों के परिणाम तू नहीं कर सकता; इसलिए उनका ग्रहण-त्याग तुझे नहीं हो सकता। अतः पर-पदार्थों का ममत्व छोड़कर स्वयं की पर्याय में ममता स्वयं के कारण तुम स्वयं करते हो - ऐसा निश्चित करके स्वभाव को ममता रहित माने तो ममता छूटे और धर्मदशा प्रगट हो।" ___ उक्त सम्पूर्ण कथन का सार यह है कि यह आत्मा अपने विकारी भावों का कर्ता-भोक्ता तो है; परन्तु पर का कर्ता-भोक्ता कदापि नहीं है। इसप्रकार यह भगवान आत्मा परपदार्थों को न तो करता है. न उन्हें ग्रहण करता है और न उन्हें छोड़ता ही है। १. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ-३५८ २. वही, पृष्ठ-३५८ ___ यदि आपको इस जगत का उतावलापन देखना है तो किसी भी नगर के व्यस्त चौराहे पर खड़े हो जाइए और देखिये इस दुनिया का उतावलापन/ चौराहे पर मौत की निशानी लालबत्ती है, एक सिपाही भी खड़ा है, आपको रोकने के लिए, फिर भी आप नहीं रुक रहे हैं । यद्यपि आप अच्छी तरह जानते हैं कि लालबत्ती होने पर सडक पार करना खतरे से खाली नहीं. कभी भी किसी भारी वाहन के नीचे आ सकते हैं, पुलिसवाला भी आपको सचेत कर रहा है, फिर भी आप दौड़े जा रहे हैं ? क्या यह उतावलेपन की हद नहीं है ? इतनी भी जल्दी किस काम की? पर ऐसा उतावलापन कहीं भी देखा जा सकता है।
क्या यह इस देश का दुर्भाग्य नहीं है कि आप अपने उतावलेपने के कारण लालबत्ती होने पर भी किसी वाहन के नीचे आकर न मर जावें, मात्र इस इसलिए लाखों पुलिसमैनों को चोराहों पर खड़ा रहना पड़ता है।
क्रमबद्धपर्याय, पृष्ठ-२२१
प्रवचनसार गाथा १८६-१८७ विगत गाथाओं में यह स्पष्ट हो जाने पर कि वस्तुतः यह आत्मा अपने रागादि विकारी भावों का कर्ता होने पर भी परद्रव्यों का कर्ता नहीं है और उनके ग्रहण-त्याग का भी कर्ता नहीं है; अब इन गाथाओं में यह स्पष्ट करते हैं कि परमार्थ से परपदार्थों के कर्तृत्व और ग्रहणत्याग से रहित होने पर भी यह आत्मा व्यवहार से अपने विकारी भावों को करते हुए कदाचित् कर्मरज से ग्रहण किया जाता है और छोड़ा जाता है तथा वह कर्मरज ज्ञानावरणादिरूप परिणमित होती है। गाथायें मूलत: इसप्रकार हैं - स इदाणिं कत्ता सं सगपरिणामस्स दव्वजादस्स। आदीयदे कदाई विमुच्चदे कम्मधूलीहिं ।।१८६ ।। परिणमदि जदा अप्पा सुहम्हि असुहम्हि रागदोसजुदो। तं पविसदि कम्मरयं णाणावरणादि भावेहिं ।।१८७ ।।
(हरिगीत) भवदशा में रागादि को करता हुआ यह आतमा । रे कर्मरज से कदाचित् यह ग्रहण होता-छूटता ।।१८६।। रागादियुत जब आतमा परिणमे अशुभ-शुभ भाव में।
तब कर्मरज से आवरित हो विविध बंधन में पड़े ।।१८७।। आत्मद्रव्य संसारावस्था में उत्पन्न होनेवाले अपने अशुद्ध परिणामों का कर्ता होता हुआ कर्मरज से कदाचित् ग्रहण किया जाता है और छोड़ा जाता है।
जब आत्मा राग-द्वेषयुक्त होता हुआ शुभ और अशुभ में परिणमित होता है, तब कर्मरज ज्ञानावरणादिरूप से उसमें प्रवेश करती है।
इन गाथाओं का भाव आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -