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गाथा-१८४-१८५
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प्रवचनसार अनुशीलन न तो करते हैं, न ग्रहण करते हैं और न छोड़ते हैं; उसीप्रकार शुद्धनिश्चयनय की अपेक्षा शक्तिरूप से संसारी जीव भी इन सबसे रहित हैं।
इन गाथाओं के भाव को कविवर वृन्दावनदासजी १ मनहरण और १ दुमिला छन्द में इसप्रकार प्रस्तुत करते हैं -
(मनहरण) आतमा दरब निज चेतन सुपरिनाम,
ताही को करत सदा ताही में रमत है। आपने सुभाव ही को करता है निहचै सो,
निजाधीन भाव भूमिका ही में गमत है ।। पुग्गलदरवमई जेते हैं प्रपंच संच,
देहादिक तिनको अकरता समत है। ऐसे भेद भेदज्ञान नैन” विलोको वृन्द,
याही बिना जीव भव भांवरी भमत है।।१२।। यह आत्मद्रव्य अपने चेतन परिणामों को करता है और उन्हीं को भोगता है। निश्चय से वह अपने स्वभावभावों का ही कर्ता-भोक्ता है; इसलिए वह स्वाधीनरूप से अपनी भूमिका का निर्वाह करता है।
पुद्गलद्रव्य का जितना भी विस्तार है, देहादिक की रचना है; उन सबका आतमा अकर्ता है। वृन्दावनदासजी कवि कहते हैं कि हम तो इसप्रकार के भेदज्ञान के नयनों से देखते हैं और इसके बिना ही जीव संसार में भ्रमण करते हैं।
(द्रुमिला) यह जीव पदारथ की महिमा, जग में निरखो भ्रम को हरिके। मधि पुग्गल के परिवर्ततु है, सब कालविर्षे निहचै करिके ।। तब हू तिन पुग्गल कर्मनि को, न गहै न तजै न करै धरिके। वह आपुहि आप सुभावहि तै, प्रनवै सतसंगति में परिके ।।९३।। हे भव्यजीवो ! भ्रम को दूर करके जगत में जीव पदार्थ की महिमा को देखो कि वह सदा ही पुद्गल के बीच में रहता है; फिर भी निश्चय से
पौद्गलिक कर्मों को न तो ग्रहण करता है, न त्याग करता है, न करता है, न धरता है, वह पुद्गलकर्म सत्संगति में पड़कर अपने स्वभाव से अपने
आप ही परिणमित होता है। ___पण्डित देवीदासजी इन गाथाओं का भाव दो पद्यों में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
(सवैया तेईसा) ग्यानस्वरूप सुजीव सही अपने परिनामनि कौं करता है। जो अपनैं परिनामनि कौ करता निहचै गुन आचरता है।। पुग्गल द्रव्य स्वरूप सु कर्म च फंद विर्षे सु नहीं परता है।
जो तन आदि पदारथ हैं तिनिकौ सुनहीं करता हरता है ।।१४६।। यह ज्ञानस्वभावी जीव अपने ही परिणामों का कर्ता है। अपने परिणामों को करनेवाला जीव अपने स्वभाव का आचरण करता है। वह पौद्गलिक कर्मों के बंधन में नहीं पड़ता है; क्योंकि वह शरीरादि पदार्थों का कर्ता-हर्ता नहीं बनता है।
(सवैया तेईसा) सो जिय कौ चिरकाल प्रवर्तन जद्यपि पुग्गल बीच रहै है। निश्चय सौं करता सु नहीं अपनै निज आपु प्रवाह वहै है ।। जो वसु कर्म मई सु उपाधिकही तिहि कौं सुन छोड़े चहे है। जैसैं न लोह के पिंड कौं आगि सुभाव सौं त्याज करैन ग्रहै है।।१४७।।
यद्यपि यह आत्मा चिरकाल से पुद्गलों के बीच में रहता आ रहा है, तथापि यह निश्चय से पुद्गलों का कर्ता नहीं है, वह तो अपने स्वभाव के प्रवाह में ही स्वयं प्रवाहमान रहता है। जिसप्रकार अग्नि लोहे के पिण्ड को स्वभाव से ही न तो ग्रहण करती है और न उसका त्याग ही करती है; उसीप्रकार यह आत्मा अष्टकर्मों की उपाधि को स्वभाव से ही न ग्रहण करता है और न छोड़ता ही है।
आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इन गाथाओं का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -