Book Title: Pravachansara Anushilan Part 2
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 189
________________ ३७० प्रवचनसार अनुशीलन जीव कर्मों से बंधता है और रत्नत्रय से परिणत जीव कर्मों से मुक्त होता है। इसप्रकार यह आत्मा जितने-जितने रूप में रत्नत्रय परिणत होता जाता है, उतने-उतने रूप में कर्मों से मुक्त होता जाता है। इसप्रकार यह सुनिश्चित हुआ कि निश्चय से रागी अर्थात् मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र से परिणत जीव कर्मबन्धन को प्राप्त होता है और सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र से परिणत जीव कर्मबन्धनों से मुक्त होता है। अत: भव्यजीवों को मिथ्यात्वादि रागभाव से विरक्त और सम्यक्त्वादिरूप वीतरागभाव में अनुरक्त होना चाहिए। ज्ञानी गुरुओं के संरक्षण और मागदर्शन में ही आत्मा की खोज का पुरुषार्थ प्रारंभ होता है। यदि गुरुओं का संरक्षण न मिल तो यह आत्मा कुगुरुओं के चक्कर में फंसकर जीवन बर्बाद कर सकता है तथा यदि गुरुओं का सही दिशा-निर्देश न मिले तो अप्रयोजनभूत बातों में ही जीवन बर्बाद हो जाता है। अत: आत्मोपलब्धि में गुरुओं के संरक्षण एवं मार्गदर्शन का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। गुरुजी अपना कार्य (आत्मोन्मुखी उपयोग) छोड़कर शिष्य का संरक्षण और मार्गदर्शन करते हैं; उसके बदले में उन्हें श्रेय के अतिरिक्त मिलता ही क्या है ? आत्मोपलब्धि करनेवाले को तो आत्मा मिल गया, पर गुरुओं को समय की बर्बादी के अतिरिक्त क्या मिला? फिर भी हम उन्हें श्रेय भी न देना चाहें - यह तो न्याय नहीं है। अत: निमित्तरूप में श्रेय तो गुरुओं को ही मिलता है, मिलना भी चाहिए, उपादान-निमित्त की यही संधि है, यही सुमेल है। - आत्मा ही है शरण, पृष्ठ-१६७ प्रवचनसार गाथा १८०-१८१ विगत गाथा में यह स्पष्ट करने के उपरान्त कि मोह-राग-द्वेषरूप भावबंध ही वास्तविक बंध है, निश्चय बंध है; अब आगामी गाथाओं में उक्त मोह-राग-द्वेष भावों का विशेष स्पष्टीकरण करते हैं - गाथायें मूलतः इसप्रकार हैं - परिणामादो बंधो परिणामो रागदोसमोहजुदो । असुहो मोहपदोसो सुहो व असुहो हवदि रागो।।१८०।। सुहपरिणामो पुण्णं असुहो पावं ति भणिदमण्णेसु। परिणामो णण्णगदो दुक्खक्खयकारणं समये ।।१८१।। (हरिगीत ) राग-रुष अर मोह ये परिणाम इनसे बंध हो। राग है शुभ-अशुभ किन्तु मोह-रुष तो अशुभ ही ।।१८०।। पर के प्रति शुभभाव पुण पर अशुभ तो बस पाप है। पर दुःखक्षय का हेतु तो बस अनन्यगत परिणाम है ।।१८१।। परिणामों से बंध होता है और परिणाम मोह-राग-द्वेष से युक्त हैं। उनमें मोह और द्वेष तो अशुभ ही हैं; पर राग शुभ और अशुभ - दोनों रूप होता है। ___ पर के प्रति शुभ परिणाम पुण्य है और अशुभ परिणाम पाप है - ऐसा कहा गया है। जो परिणाम दूसरों के प्रति प्रवर्तमान नहीं है, वह परिणाम समय पर दुख क्षय का कारण है अथवा शास्त्रों में ऐसा कहा है कि वह परिणाम दुःख क्षय का कारण है। आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इन गाथाओं के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "द्रव्यबंध विशिष्ट परिणाम से होता है। परिणाम विशिष्टता मोहराग-द्वेषमयता के कारण है। वह परिणाम शुभत्व और अशुभत्व के

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