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प्रवचनसार अनुशीलन चिदानंद रूपसुद्ध नित्य आतमीक भाव
उपादेय अंगीकार करिकै नमानैं हैं। सरीरादि रूप मैं सु मेरे सरीरादि द्रव्य
परिणाम अँसे जे अलीक उर आनैं हैं ।।१४५।। इस लोक में जो प्राणी मोह-राग-द्वेष की मदिरा के नशे में अपने आपको भूले हुए हैं, चेतन-अचेतन की सही पहिचान न होने से जीव
और पुद्गलद्रव्य का स्वरूप भिन्न-भिन्न नहीं जानते हैं, सदा शुद्ध चिदानंदमयी आत्मिक भाव को उपोदय मानकर अंगीकार नहीं करते हैं, शरीरादि रूप ही मैं हूँ अथवा शरीरादि मेरे हैं - ऐसे मिथ्या परिणामों को ही मन में आने देते हैं अर्थात् उन मिथ्या-मोहजन्य परिणामों में मगन रहते हैं; वे जीव अज्ञानी हैं।
आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इन गाथाओं के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
“पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक - इन पाँच को स्थावर कहा तथा दो इन्द्रिय से लेकर असंज्ञी और संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यंत जीवों को त्रस कहा है। इनका शरीर अचेतन है और अचेतनपने के कारण ये जीव से जुदे हैं। हरी सब्जी को सचेत कहा है, उसमें हरी सब्जी तो सचेत नहीं, अचेतन है; किन्तु अंदर रहनेवाला आत्मा चेतन है। शरीर जीव नहीं है। हरी सब्जी के शरीर और जीव जुदे हो जाते हैं। मात्र तैजस-कार्मण शरीर ही जीव के साथ जाते हैं; किन्तु वे भी अचेतन हैं, उनसे भी जीव जुदा है। नारकी, तिर्यंच, मनुष्य तथा देवों के शरीर जड़ हैं, वे आत्मा से जुदे हैं।
जीव भी स्वयं के ज्ञान-दर्शन स्वभाव के कारण उनसे जुदा है।'
षट्जीव निकाय आत्मा को परद्रव्य हैं तथा आत्मा एक ही स्वद्रव्य है।
इसप्रकार परद्रव्य से निवृत्ति करके, स्वद्रव्य-चेतनास्वरूप में प्रवृत्ति १. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ-३४२ २. वही, पृष्ठ-३४२
गाथा-१८२-१८३
३८३ करना ही ज्ञेयों के सच्चा ज्ञान करने का फल है और वही धर्म तथा शांति का कारण है।
परपदार्थ परज्ञेय हैं और आत्मा स्वज्ञेय है। परजीव के द्रव्य-क्षेत्रकाल-भाव निज आत्मा से जुदे हैं। जो पदार्थ जुदा हो वह किसी का क्या कर सकता है ?
मिथ्यात्वरूपी मूल के नाश बिना संसाररूपी वृक्ष का नाश नहीं होता। आत्मा शरीर से तथा अन्य सभी जीवों से जुदा है। मेरा स्वभाव मेरे में हैं - ऐसा जो भेद-विज्ञान नहीं करता, वह जीव मानता है कि मैं भाषा बोल सकता हूँ, पर जीव की दया पाल सकता हूँ, कुटुंब की, देश की रक्षा कर सकता हूँ, शब्द से मुझे ज्ञान होता है इत्यादि। जो ऐसा मानता है कि अचेतन पदार्थों की पर्याय, चेतन पदार्थों के कारण होती है; वह स्व-पर के भेद को नहीं जानता।।
प्रत्येक द्रव्य और पर्याय सत् है, स्वतंत्र है; पर के कारण नहीं। लकड़ी के स्कंध में प्रत्येक रजकण स्वतंत्र रहते हैं। प्रत्येक परमाणु स्वयं के आधार से है, अन्य परमाणु के आधार से नहीं। प्रत्येक परमाणु तथा जीव के कर्ता, कर्म, करण, संप्रदान, अपादान और अधिकरण - ये छह कारक स्वयं में हैं और पर के छह कारक पर में है। निगोद के अनंत जीव एकसाथ रहते हैं, वे सभी स्वतंत्र हैं और उनके छह कारक स्वयं में हैं, पर में उनका अभाव है। जब अभाव है तो दूसरी वस्तु में क्या करेगा?
जिस जीव को स्वयं के ज्ञाता-दृष्टारूप शुद्ध स्वभाव का श्रद्धाज्ञान नहीं वर्तता, उस जीव को स्व-पर का भेद-विज्ञान नहीं होता। वही जीव 'शरीर मैं हूँ, मेरे द्वारा इतने जीवों की रक्षा हुई, पुण्य से धीरेधीरे धर्म होगा, वाणी से ज्ञान होगा' - ऐसा मोहवश परद्रव्य में अहंपना करता है; किन्तु ज्ञानी जीव ऐसा अध्यवसान नहीं करता। इसलिए
१. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ-३४४ ३. वही, पृष्ठ-३४७
२. वही, पृष्ठ-३४४ ४. वही, पृष्ठ-३४८