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प्रवचनसार अनुशीलन जो आत्मा जीव के चेतनत्व और पुद्गल के अचेतनत्वरूप स्वभाव के द्वारा स्व-पर के विभाग को नहीं देखता; वह आत्मा यह मैं हूँ, यह मेरा है' - इसप्रकार मोह से परद्रव्य में अपनेपन का अध्यवसान करता है, कोई दूसरा नहीं।
अत: यह निश्चित है कि जीव को परद्रव्य में प्रवृत्ति का निमित्त स्वपर के ज्ञान का, भेदविज्ञान का अभाव ही है। इसप्रकार कहे बिना ही, स्व-सामर्थ्य से ही यह सिद्ध हुआ कि स्वद्रव्य में प्रवृत्ति का निमित्त स्वपर के ज्ञान के अभाव का अभाव है अर्थात् स्व-पर के ज्ञान का सद्भाव है।
तात्पर्य यह है कि स्वद्रव्य में प्रवृत्ति का कारण भेदविज्ञान है और परद्रव्य में प्रवृत्ति का कारण भेदविज्ञान का अभाव है।"
आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में इन गाथाओं के भाव को तत्त्वप्रदीपिका के समान ही स्पष्ट करते हैं।
कविवर वृन्दावनदासजी प्रवचनसार परमागम में उक्त गाथाओं के भाव को दो मत्तगयन्द सवैयों में इसप्रकार प्रस्तुत करते हैं -
(मत्तगयन्द) थावर जीव निकायनि के, पृथिवी प्रमुखादिक भेद घने हैं।
औ त्रसरासि निवासिन के, तन के कितनेकन भेद बने हैं।। सो सब पुग्गलदर्वमई, चिनमूरति तैं सब भिन्न ठने हैं।
चेतन हू तिन देहनि तें, निहचै करि भिन्न जिनिंद भने हैं ।।९० ।। स्थावर जीव निकाय के पृथ्वी आदि अनेक भेद हैं और त्रस राशि में रहनेवालों के भी अनेक प्रकार होते हैं। ये सभी पुद्गलद्रव्यमय हैं। चैतन्यमूर्ति आत्मा से सब भिन्न हैं और निश्चय से चेतन भी उन सभी देहादि पदार्थों से भिन्न है - ऐसा जिनेन्द्रदेव कहते हैं।
(मत्तगयन्द) जोजन या परकार करी, निज औपर को नहिं जानत नीके। आप सरूप चिदानंद वृन्द, तिसे न गहै मदमोह वमी के।। सो नित मैं तनरूप तथा, तन है हमरो इमि मानत ठीके। भूरि भवावलि माहिं भमै, निहचै वह मोह महामद पी के ।।९१।।
गाथा-१८२-१८३
३८१ इसप्रकार जो लोग निज को और पर को अच्छी तरह नहीं जानते हैं और मोह-मदिरा का वमन करके चिदानन्द स्वरूप निज आत्मा को ग्रहण नहीं करते, 'मैं शरीररूप हूँ और शरीर हमारा है' - निरन्तर ऐसा ही मानते रहते हैं; वे लोग निश्चय से मोहमदिरा का पान करके बारम्बार भवार्णव में ही घूमनेवाले हैं, भ्रमनेवाले हैं।
पण्डित देवीदासजी इन गाथाओं का भाव दो पद्यों में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
(सवैया इकतीसा) प्रथवी सुपानी आगि वाउ वंसपती और
त्रसकाय जीव छै प्रकार जे जताये हैं। अथवा सु थावर तथा सु जीव जंगम हैं
जे तौ तिनही के ये सुकरे दो किताये हैं।। तेई सब चेतना स्वरूप जीव तैं सु भिन्न
तनपिण्डरूप सो अचेतन बताये हैं। जीव द्रव्य निश्चै करिकैंसु तिनि तैं सुजुदौ
ग्यानरूप चिन्ह जाकेजाही सौं बताये हैं।।१४४।। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति तथा त्रसकाय रूप छह प्रकार के जीव आगम में बताये गये हैं अथवा उन्हीं संसारी जीवों के स्थावर और जंगम - ये दो भेद भी किये गये हैं। उन चेतनास्वरूप जीवों से भिन्न जो शरीररूप पुद्गल पिण्ड हैं, वे सब अचेतन ही हैं। शरीरादि अनेक पुद्गल पिण्ड से जीव द्रव्य निश्चित ही जुदा है । जिनके ज्ञानरूप चिन्ह प्रगट हैं - ऐसे जीव उन पृथ्वी काय आदि में रहते हैं; अत: उन्हें उपचार से जीव कहते हैं।
__(सवैया इकतीसा ) यह लोक के मझार प्रानी जे सुराग दोष
मोह मदिरा की गहलाई सौं भुलानैं हैं। चेतन अचेतन की ठीक तातै भिन्न-भिन्न
जीवद्रव्य पुद्गल स्वरूप सो न जानैं हैं ।।