Book Title: Pravachansara Anushilan Part 2
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 192
________________ ३७६ प्रवचनसार अनुशीलन जिससे मिथ्यात्वरूपी बड़ा पाप टल जाये और संसार का नाश होकर धर्मदशा की प्राप्ति हो। शुद्ध चिदानन्द स्वरूप आत्मा पर-पदार्थ और विकारभाव से रहित है। ऐसे ज्ञाता-दृष्टारूप शुद्धस्वभाव के आश्रय से होनेवाले परिणामों में पर का अवलंबन नहीं होने से वे अविशिष्ट अर्थात् शुद्ध परिणाम हैं। अशुद्ध परिणाम शुभ और अशुभ के भेद से दो प्रकार का कहा है। देव-गुरु-शास्त्र की भक्ति एवं, दया-दान-पूजा आदि के परिणाम शुभभाव हैं। (अ) कितने ही अज्ञानी लोग कोमलता अथवा दया दान के भाव को पापभाव कहते हैं; किन्तु यह बात खोटी है; क्योंकि शुभभाव तो पुण्यतत्त्व है और पुण्यतत्त्व पापतत्त्व से जुदा है। पुण्य को पाप मानने से नवतत्त्व ही नहीं रहेंगे। (ब) वहीं कितने ही अज्ञानी लोग शुभभाव से निर्जरा मानते हैं, वह भी भूल है; क्योंकि शुभभाव पुण्य तत्त्व और आस्रव-बंधतत्त्व हैं। बंध के कारण को निर्जरा माननेवाला बंधतत्त्व तथा निर्जरातत्त्व दोनों को ही नहीं जानता; इसलिये उसे नवतत्त्व की श्रद्धा नहीं है। (स) कितने ही अज्ञानी जीव शुभभावों की उत्पत्ति पर के अथवा कर्म के कारण मानते हैं। ऐसा मानने से एक जीव दूसरे जीवरूप अथवा अजीव के साथ एकरूप हो जाता है। इसकारण उन्हें भी जीव अथवा अजीवतत्त्व की श्रद्धा नहीं है। उनकी मान्यता भी खोटी है। शुभभाव से साता-वेदनीय कर्म, अच्छा नाम कर्म, उच्चगोत्र कर्म, शुभ आयु और अच्छी गति इत्यादि पुण्य प्रकृतियों का बंध होता है और उसके फल में शुभ संयोग मिलते हैं; किन्तु धर्म की प्राप्ति नहीं होती। शुभ के फल में पुण्य-प्रकृतियों का बंध होता है; इसलिए कारण में कार्य का उपचार करके शुभ को पुण्य कहने में आता है। साधकदशा गाथा-१८०-१८१ ३७७ में अशुभ से बचने के लिए शुभ परिणाम आते हैं और उन्हें उपचार से पुण्य कहा जाता है, लेकिन उसकी सीमा समझनी चाहिए। साक्षात् त्रिलोकीनाथ तथा संत मुनि भी निज आत्मा की अपेक्षा पर हैं और उनके लक्ष्य से होनेवाला शुभभाव पुण्यबंध का कारण है। ____ अपने शुद्ध चैतन्यस्वरूप का लक्ष्य छोड़कर शरीर के लक्ष्य से होनेवाले सभी भाव अशुभ हैं। मैं पर-पदार्थों का कर्ता हूँ - ऐसा ममता भाव अर्थात् मिथ्याभाव है। चैतन्यस्वभाव से चूककर होनेवाले सभी सांसारिक भाव अशुभभाव हैं। अविशिष्ट परिणाम शुद्ध होने से एक है, इसलिए उसके भेद नहीं है। यहाँ शुद्ध परिणाम को ही मोक्ष कहा है। साधकदशा में उत्तरोत्तर स्वभाव की लीनता बढ़ने से निर्मलता की अनेक प्रकार की तारतम्यता होने पर भी उसमें (शुद्ध परिणाम में) भेद नहीं पड़ता। प्रतिसमय निर्मल पर्याय द्रव्य के साथ अभेद रहती है; इसकारण उसे एक ही कहा है। ऐसी निर्मलता होने पर संसार दुःख के कारणभूत कर्मपुद्गलों का नवीन बंध नहीं होता और प्रतिसमय निर्मलता बढ़ती जाती है। ज्ञानी को पर्यायबुद्धि का नाश होने से स्वभाव-बुद्धि प्रगट हुई, इसकारण उसे कर्म नहीं बंधता और सर्व कर्मों का क्षय होने पर मोक्ष की शुद्ध पर्याय प्रगट होती है; इसलिए शुद्ध परिणाम स्वयं ही मोक्ष है।" उक्त सम्पूर्ण कथन का सार यह है कि बंध और मोक्ष परिणामों से ही होता है, किसी क्रियाविशेष से नहीं। __ परिणाम दो प्रकार के हैं - परद्रव्यप्रवृत्त और स्वद्रव्यप्रवृत्त । यहाँ परद्रव्यप्रवृत्त परिणामों को विशिष्ट परिणाम और स्वद्रव्यप्रवृत्त परिणामों को अविशिष्ट परिणाम कहते हैं। विशिष्ट परिणाम अर्थात् अशुद्ध परिणाम, शुभ परिणाम और अशुभ परिणाम के भेद से दो प्रकार के हैं। पुण्यबंध के कारण होने से शुभ परिणामों को पुण्य या पुण्य परिणाम कहते हैं और १. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ-३३९ २. वही, पृष्ठ-३४० ३. वही, पृष्ठ-३४० १. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ-३३६ २. वही, पृष्ठ-३३८-३३९

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