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प्रवचनसार अनुशीलन
इससे निश्चित होता है कि द्रव्यबंध का साधकतम हेतु होने से राग परिणाम ही निश्चय से बंध है।"
आचार्य जयसेन उक्त गाथा का भाव तत्त्वप्रदीपिका के समान ही स्पष्ट करते हुए अन्त में लिखते हैं कि रागपरिणाम बंध का कारण है - ऐसा जानकर सम्पूर्ण रागादि विकल्पों के त्यागपूर्वक विशुद्ध ज्ञानदर्शनस्वभावी निजात्मतत्त्व की भावना निरन्तर भाना चाहिए ।
बंध के मर्म को अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में व्यक्त करनेवाली इस गाथा और उसकी टीका का भाव सहज बोधगम्य भाषा में कविवर वृन्दावनदासजी इसप्रकार प्रस्तुत करते हैं -
(द्रुमिला )
परदर्व विषै अनुराग धरै, वसु कर्मनि को सोड़ बंध करै । अरु जो जिय रागविकार तजै, वह मुक्तवधूकहँ बेगि बरै ।। यह बंध रु मोच्छसरूप जथारथ, थोरहि में निरधार धरै । निचै करिके जगजीवनि के, तुम जानहु वृन्द प्रतीत भरै ।। ८४ । । जो जीव परद्रव्यों में अनुराग रखते हैं, वे जीव आठ कर्मों का बंध करते हैं और जो जीव रागादि विकारी भावों को तज देते हैं; वे जीव मुक्तिवधू का शीघ्र ही वरण करते हैं। संक्षेप में कथित यह बंध और मोक्ष का यथार्थ स्वरूप जो व्यक्ति निर्धारण कर लेते हैं, उन जगत के जीवों को निश्चय से बंध और मोक्ष का सच्चा श्रद्धान हो जाता है। ऐसा कविवर वृन्दावनदासजी कहते हैं।
( चौपाई )
रागभाव प्रनवैं जे आंधे। नूतन दरब करम ते बांधे । वीतराग पद जो भवि परसै। ताकौ मुक्त अवस्था सरसै ।। ८५ ।।
जो अन्धे प्राणी रागभावरूप परिणमित होते हैं; वे नये द्रव्यकर्मों का बंध करते हैं और जो जीव वीतरागभाव का स्पर्श करते हैं, वे सरस मुक्त अवस्था को प्राप्त करते हैं
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गाथा - १७९
(दोहा)
रागादिक को त्यागि जे, वीतराग हो जाँह ।
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चले जाहिं वैकुंठ में, कोइ न पकरै बाँह ॥ ८६ ।। रागादिभावों को त्यागकर जो जीव वीतरागी हो जाते हैं; वे जीव वैकुंठ (मोक्ष) में चले जाते हैं। उन्हें रोकने के लिए उनकी बाह को कोई नहीं पकड़ता है।
पण्डित देवीदासजी इस गाथा का भाव दो पद्यों में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
( चौपाई )
जे जिय राग भाव करि अंधे अष्ट प्रकार कर्म करि बंधे । परनति नहीं राग तिन्हि मांहिं जिन्हिकैं करमबंध सो नांही ।। १४० ।।
जो जीव रागभाव से अंधे हो रहे हैं, वे जीव आठ प्रकार के कर्मों से बंध हैं तथा जिनके कर्म बंध नहीं होता है, उनकी परिणति में अर्थात् भावों में राग भी नहीं होता है।
(दोहा)
संसारी जियकैं सुपुनि भावरूप रागादि ।
सो असुद्ध उपयोगमय कारन बंध अनादि । । १४१ ।। संसारी जीव के अनादिकाल से बंध के कारणरूप अशुद्धोपयोगमय रागादिभाव विद्यमान हैं।
आध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
“जितने प्रमाण में जीव राग-द्वेष करता है, उतने प्रमाण में द्रव्यकर्म स्वतंत्रपने बंधते हैं - ऐसा निमित्त - नैमित्तिक संबंध है; किन्तु जितने प्रमाण में कर्म का उदय हो, उतने प्रमाण में जीव को राग-द्वेष करना ही पड़े ऐसा नहीं है।
शुद्धस्वभाव के भानवाला वैराग्य परिणत जीव नवीन कर्मों से नहीं बंधता । यहाँ वैराग्य परिणत शब्द का खास अर्थ है। १. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ- ३२६
२. वही, पृष्ठ-३२६